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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


यही भावनाएँ अमर के अन्तस्थल में लहरों की भाँति उठती रहती थीं।

वह प्रातःकाल उठकर शान्तिकुमार के सेवाश्रम में पहुँच जाता और दोपहर तक वहाँ लड़कों को पढ़ाता रहता। पाठशाला डॉक्टर साहब के बँगले में थी। नौ बजे तक डॉक्टर साहब भी पढ़ाते थे। फ़ीस बिल्कुल न ली जाती थी, फिर भी लड़के बहुत कम आते थे। सरकारी स्कूलों में जहाँ फ़ीस और जुरमाने और चन्दों की भरमार रहती थी, लड़कों को बैठने की जगह न मिलती थी। यहाँ कोई झाँकता भी न था।
मुश्किल से दो-ढाई सौ लड़के आते थे। छोटे-छोटे भोले-भोले निष्कपट बालकों का कैसे स्वाभाविक विकास हो; कैसे व साहसी, सन्तोषी, सेवाशील नागरिक बन सकें यही मुख्य उद्देश्य था। सौन्दर्य-बोध जो मानव-प्रकृति का प्रधान अंग है। कैसे दूषित वातावरण से अलग रहकर अपनी पूर्णता पाये, संघर्ष की जगह सहानुभूति का विकास कैसे हो, दोनों मित्र यही सोचते रहते थे। उनके पास शिक्षा की कोई बनी-बनाई प्रणाली न थी। उद्देश्य को सामने रखकर ही वह साधनों की व्यवस्था करते थे। आदर्श महापुरुषों को चरित्र, सेवा और त्याग की कथाएँ, भक्ति और प्रेम के पद, यही शिक्षा के अधार थे। उनके दो सहयोगी और थे। एक आत्मानन्द संन्यासी थे, जो संसार से विरक्त होकर सेवा में जीवन सार्थक करना चाहते थे, दूसरे एक संगीत के आचार्य थे, जिनका नाम था ब्रजनाथ। इन दोनों सहयोगियों के आ जाने से शाला की उपयोगिता बहुत बढ़ गयी थी।

एक दिन अमर ने शान्तिकुमार से कहा– ‘आप आख़िर कब तक प्रोफ़ेसरी करते चले जायेंगे; जिस संस्था को हम जड़ से काटना चाहते हैं, उसी से चिमटे रहना तो आपको शोभा नहीं देता।’

शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा–‘मैं ख़ुद यही सोच रहा हूँ भई, पर सोचता हूँ, रुपये कहाँ से आयेंगे? कुछ खर्च नहीं है, तो भी पाँच सौ में सन्देह है ही नहीं!’

‘आप इसकी चिन्ता ने कीजिए। कहीं-न-कहीं रुपये आ ही जायेंगे। फिर रुपये की ज़रूरत क्या है?’

‘मकान का किराया है, लड़कों के लिए किताबें हैं और बीसों की ख़र्च है। क्या-क्या गिनाऊँ?’

‘हम किसी वृक्ष के नीचे दो लड़के तो पढ़ा सकते हैं।’

‘तुम आदर्श की धुन में व्यावहारिकता का बिलकुल विचार नहीं करते। कोरा आदर्शवाद, ख़याली पुलाव है।’

अमर ने चकित होकर कहा–‘मैं तो समझता था, आप भी आदर्शवादी हैं।’

शान्तिकुमार ने मानो इस चोट को ढाल पर रोककर कहा–मेरे आदर्शवाद में व्यावहारिकता का भी स्थान है।’

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