उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
पठानिन ने अंगीठी के सामने बैठकर सिर पर हाथ रख लिया और सोचने लगी–लड़की कितनी बेशर्म है!
सकीना बाजरे की रोटियाँ मसूर की दाल के साथ खाकर, टूटी खाट पर लेटी और पुराने फटे हुए लिहाफ़ में सर्दी के मारे पाँव सिकोड़ लिये, पर उसका हृदय आनन्द से परिपूर्ण था। आज़ उसे जो विभूति मिली थी, उसके सामने संसार की सम्पदा तुच्छ थी, नगण्य थी।
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अमरकान्त के जीवन में एक नयी स्फूर्ति का संचार होने लगा। अब तक घर वालों ने उसके हरेक काम की अवहेलना ही की थी। सभी उसकी लगाम खींचते रहते थे। घोड़ें में न वह दम रहा, न वह उत्साह; लेकिन अब एक प्राणी बढ़ावा देता था; उसकी गर्दन पर हाथ फेरता था। जहाँ उपेक्षा, या अधिक-से-अधिक शुष्क उदासीनता थी, वहाँ अब एक रमणी का प्रोत्साहन था, जो पर्वतों को हिला सकता है, मुर्दों को जिला सकता है। उसकी साधना, जो बन्धनों में पड़कर संकुचित हो गयी थी, प्रेम का आश्रय पाकर प्रबल और उग्र हो गयी है। अपने अन्दर ऐसी आत्मशक्ति उसने कभी न पायी थी। सकीना अपने प्रेमस्रोत्र से उसकी साधना को सींचती रहती है। यह स्वयं अपनी रक्षा नहीं कर सकती; पर उसका प्रेम उस ऋषि को वरदान है जो आप भिक्षा माँगकर दूसरों पर विभूतियों की वर्षा करता है। अमर बिना किसी प्रयोजन के सकीना के पास नहीं जाता। उसमें वह उद्दण्डता भी नहीं रही। समय और अवसर देखकर काम करता है। जिन वृक्षों की जड़ें गहरी होती हैं, उन्हें बार-बार सींचने की ज़रूरत नहीं होती। वह ज़मीन से ही आर्द्रता खींचकर बढ़ते और फलते-फूलते हैं। सकीना और अमर का प्रेम वही वृक्ष है। उसे सजग रखने के लिए बार-बार मिलने की ज़रूरत नहीं!
डिग्री की परीक्षा हुई पर अमरकान्त उसमें बैठा नहीं। अध्यापकों को विश्वास था, उसे छात्रवृत्ति मिलेगी। यहाँ तक कि डॉ. शान्तिकुमार ने भी उसे बहुत समझाया; पर वह ज़िद पर अड़ा रहा। जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की ज़रूरत है, डिग्री की नहीं। हमारी डिग्री है–हमारा सेवा-भाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता। अगर यह डिग्री नहीं मिली, अगर हमारी आत्मा जागरित नहीं हुई, तो कागज़ की डिग्री व्यर्थ है। उसे इस शिक्षा से ही घृणा हो गयी थी। जब वह अपने अध्यापकों को फ़ैशन की गुलामी, करते, स्वार्थ के लिए नाक रगड़ते, कम-से-कम काम करके अधिक-से-अधिक लाभ के लिए हाथ पसारते देखता, तो उसे घोर मानसिक वेदना होती थी, और इन्हीं महानुभावों के हाथ में राष्ट्र की बागडोर है। यही क़ौम के विधाता हैं। इन्हें इसकी परवाह नहीं कि भारत की जनता दो आने पैसों पर गुज़र करती है। एक साधारण आदमी को साल भर में पचास से ज़्यादा नहीं मिलते। हमारे अध्यापकों को पचास रुपये रोज़ चाहिए। तब अमर को उस अतीत की याद आती, जब हमारे गुरुजन झोंपड़ों में रहते थे, स्वार्थ से अलग, लोभ से दूर, सात्त्विक जीवन के आदर्श, निष्काम सेवा के उपासक। वह राष्ट्र से कम-से-कम लेकर अधिक-से-अधिक देते थे। वह वास्तव में देवता थे। और एक यह अध्यापक हैं, जो किसी अंश में भी एक मामूली व्यापारी या राज-कर्मचारी से पीछे नहीं। इनमें भी वह दम्भ है, वही धन-मंद है, वही अधिकारमद है। हमारे विद्यालय क्या हैं, राज्य के विभाग हैं, और हमारे अध्यापक उसी राज्य के अंग हैं। ये ख़ुद अन्धकार में पड़े हुए हैं, प्रकाश क्या फैलायेंगे? वे आप अपने मनोविकारों के क़ैदी हैं, आप अपनी इच्छाओं के गुलाम हैं और अपने शिष्यों को भी उसी क़ैद और गुलामी में डालते हैं। अमर की युवक-कल्पना अतीत का स्वप्न देखने लगती। परिस्थितियों को वह बिलकुल भूल जाता। उसके कल्पित राष्ट्र के कर्मचारी सेवा के पुतले होते, अध्यापक झोंपड़ी में रहने वाले वल्कलधारी, कंदमूल-फल-भोगी संन्यासी, जनता द्वेष और लोभ से रहित, न यह आये दिन के टंटे, न बखेड़े। इतनी अदालतों की जरूरतें क्या? यह बड़े-बड़े महकमे किसलिए? ऐसा मालूम होता है, गरीबों की लाश नोचनेवाले गिद्धों का समूह है। जिनके पास जितनी ही बड़ी डिग्री है, उसका स्वार्थ भी उतना बढ़ा हुआ है। मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वत्ता का लक्षण है। गरीबों को रोटियाँ मयस्सर न हों, कपड़ों को तरसते हों; पर हमारे शिक्षित भाइयों को नोट चाहिए, बँगला चाहिए, नौकरों की एक पलटन चाहिए। इस संसार को अगर मनुष्य ने रचा है तो अन्यायी है; ईश्वर ने रचा है तो उसे क्या कहें!
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