उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘मैं तुम्हारी राह देखती रहूँगी।’
‘कोई चीज़ तुम्हारी नज़र करूँ, तो नाराज़ तो न होगी?’
‘दिल से बढ़कर भी कोई नज़र हो सकती है?’
‘नज़र के साथ कुछ शीरीनी होनी जरूरी है।’
‘तुम जो कुछ दो वह सिर और आँखों पर।’
अमर इस तरह अकड़ता हुआ जा रहा था; गोया दुनिया की बादशाही पा गया है। सकीना ने द्वार बन्द करके दादी से कहा–‘तुम नाहक़ दौड़-धूप कर रही हो अम्माँ। मैं शादी न करूँगी।’
‘तो क्या यों ही बैठी रहोगी?’
‘हाँ, जब मेरी मर्जी होगी, तब कर लूँगी।’
‘तो क्या मैं हमेशा बैठी रहूँगी?’
‘हाँ, जब तक मेरी शादी न हो जायेगी, आप बैठी रहेंगी।’
‘हँसी मत कर। मैं सब इंतजाम कर चुकी।’
‘नहीं अम्मा, मैं शादी न करूँगी और मुझे दिक़ करोगी तो ज़हर खा लूँगी। शादी के ख़याल से मेरी रूह फ़ना हो जाती है।’
‘तुम्हें क्या हो गया सकीना?’
‘मैं शादी नहीं करना चाहती, बस। जब तक कोई ऐसा आदमी न हो, जिसके साथ मुझे आराम से ज़िन्दगी बसर होने का इत्मीनान हो, मैं यह दर्द सर नहीं लेना चाहती। तुम मुझे ऐसे घर में डालने जा रही हो, जहाँ मेरी ज़िन्दगी तल्ख हो जायेगी। शादी की मंशा यह नहीं है कि आदमी रो-रोकर दिन काटे।’
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