उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अमर की इच्छा हुई कि सकीना को गले लगाकर प्रेम से छक जाए; पर सकीना के ऊँचे प्रेमादर्श ने उसे शान्त कर दिया। बोला–‘लेकिन तुम्हारी शादी तो होने जा रही है।’
‘मैं अब इन्कार कर दूँगी।’
‘बुढ़िया मान जायेगी?’
‘मैं कह दूँगी–अगर तुमने मेरी शादी का नाम भी लिया, तो मैं ज़हर खा लूँगी।’
‘क्यों न इसी वक़्त हम और तुम कहीं चले जाएँ?’
‘नहीं, वह ज़हिरी मुहब्बत है। असली मुहब्बत वह है जिसकी जुदाई में भी विसाल है, जहाँ जादुई है ही नहीं, जो अपने प्यारे से एक हज़ार कोस पर होकर भी अपने को उसके गले से मिला हुआ देखती है।’
सहसा पठानिन ने द्वार खोला। अमर ने बात सुनायी– ‘मैंने तो समझा था, तुम कब की आ गयी होगी। बीच में कहाँ रह गयी?’
बुढ़िया ने खट्टे मन से कहा–‘तुमने तो आज ऐसा रूखा जवाब दिया भैया कि मैं रो पड़ी। तुम्हारा ही तो मुझे भरोसा था और तुम्हीं ने मुझे ऐसा जवाब दिया; पर अल्लाह का फ़जल है, बहूजी ने मुझसे वादा किया–जितने रुपये चाहना ले जाना। वहीं देर हो गयी। तुम मुझसे किसी बात पर नाराज़ तो नहीं हो बेटा?’
अमर ने उसकी दिलजोई की–‘नहीं अम्माँ, आपसे भला क्या नाराज़ होता। उस वक़्त दादा से एक बात पर झक-झक हो गयी थी; उसी का खुमार था। मैं बाद को खुद शर्मिन्दा हुआ और तुमसे मुआफ़ी माँगने दौड़ा। सारी खता मुआफ़ करती हो?’
बुढ़िया रोकर बोली–‘बेटा, तुम्हारे टुकड़ों पर तो ज़िन्दगी कटी, तुमसे नाराज़ होकर ख़ुदा को क्या मुँह दिखाऊँगी। इस खाल से तुम्हारे पाँव की जूतियाँ बनें तो भी दरेग़ न करूँ।’
‘बस, मुझे तस्कीन हो गयी अम्माँ। इसीलिए आया था।’
अमर द्वार पर पहुँचा, तो सकीना ने द्वार बन्द करते हुए कहा–‘कल जरूर आना।’
अमर पर एक गैलन का नशा चढ़ गया–‘जरूर आऊँगा।’
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