उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सकीना जैसे घबरा गयी। जहाँ उसने एक चुटकी आटे का सवाल किया था, वहाँ दाता ने ज्योनार का एक भरा थाल लेकर उसके सामने रख दिया। उसके छोटे-से पात्र में इतनी जगह कहाँ है? उसकी समझ में नहीं आता कि उस विभूति को कैसे समेटे? आँचल और दामन सब कुछ भर जाने पर भी तो वह समेट न सकेगी। आँखें सजल हो गयीं, हृदय उछलने लगा। सिर झुकाकर संकोच-भरे स्वर में बोली–‘बाबूजी, ख़ुदा जानता है, मेरे दिल में तुम्हरी कितनी इज़्ज़त और कितनी मुहब्बत है। मैं तो तुम्हारी एक निगाह पर क़ुरबान हो जाती। तुमने तो भिखारिन को जैसे तीनों लोक का राज्य दे दिया; लेकिन भिखारिन राज को लेकर क्या करेगी? उसे तो एक टुकड़ा चाहिए। मुझे तुमने इस लायक़ समझा, यही मेरे लिए बहुत है। मैं अपने को इस लायक नहीं समझती। सोचो मैं कौन हूँ? एक ग़रीब मुसलमान औरत, जो मज़दूरी करके अपनी ज़िन्दगी बसर करती है। मुझमें न वह नफ़ासत है, न वह सलीक़ा, न वह इल्म। मैं सुखदा देवी के कदमों की बराबरी नहीं कर सकती। मेढ़की उड़कर ऊँचे दरख़्त पर तो नहीं जा सकती। मेरे कारण आपकी रुसवाई हो, उससे पहले मैं जान दे दूँगी। मैं आपकी ज़िन्दगी में दाग़ न लगाऊँगी।’
ऐसे अवसरों पर हमारे विचार कुछ कवितामय हो जाते हैं। प्रेम की गहराई कविता की वस्तु है और साधारण बोलचाल में व्यक्त नहीं हो सकती। सकीना ज़रा दम लेकर बोली–‘तुमने एक यतीम, ग़रीब लड़की को ख़ाक से उठाकर आसमान पर पहुँचाया, अपने दिल में जगह दी, तो मैं जब तक जिऊँगी इस मुहब्बत के चिराग़ को अपने दिल के ख़ून से रोशन रखूँगी।’
अमर ने ठण्डी साँसें खींचकर कहा–‘इस ख़याल से मुझे तस्कीन न होगी सकीना। यह चिराग़ हवा के झोंके से बुझ जायेगा और वहाँ दूसरा चराग़ रोशन होगा। फिर तुम मुझे कब याद करोगी? यह मैं नहीं देख सकता। तुम इस ख़याल को दिल से निकाल डालो कि मैं कोई बहुत बड़ा आदमी हूँ और तुम बिलकुल नाचीज़ हो। मैं अपना सब कुछ तुम्हारे क़दमों पर निसार कर चुका और अब मैं तुम्हारे पुजारी के सिवा और कुछ नहीं। बेशक सुखदा तुमसे ज़्यादा हसीन है; लेकिन तुममें कुछ बात तो है, जिसने मुझे उधर से हटाकर तुम्हारे क़दमों पर गिरा दिया। तुम किसी ग़ैर की हो जाओ, यह मैं नहीं सह सकता। जिस दिन यह नौबत आयेगी, तुम सुन लोगी कि अमर इस दुनिया में नहीं है; अगर तुम्हें मेरी वफ़ा के सबूत की ज़रूरत हो तो उसके लिए ख़ून की यह बूँदे हाज़िर हैं।
यह कहते हुए उसने छुरी निकाल ली। सकीना ने झपटकर छुरी उसके साथ से छीन ली और मीठी झिड़की के साथ बोली–‘सबूत की ज़रूरत उन्हें होती है, जिन्हें यक़ीन न हो, जो कुछ बदले में हों। मैं तो सिर्फ़ तुम्हारी पूजा करना चाहती हूँ। देवता मुँह से कुछ नहीं बोलता; तो क्या पुजारी के दिल में उसकी भक्ति कुछ कम होती है? मुहब्बत खुद अपना इनाम है। नहीं जानती ज़िन्दगी किस तरफ़ जायेगी; लेकिन जो कुछ भी हो, ज़िस्म चाहे किसी का हो जाए, यह दिल हमेशा तुम्हारा रहेगा। इस मुहब्बत को गरज़ से पाक रखना चाहती हूँ। सिर्फ़ यह यकीन कि मैं तुम्हारी हूँ, मेरे लिए काफ़ी है। मैं तुमसे सच कहती हूँ प्यारे, इस यकीन ने मेरे दिल को इतना मज़बूत कर दिया है कि वह बड़ी-से-बड़ी मुसीबत भी हँसकर झेल सकता है। मैंने तुम्हें यहाँ आने से रोका था। तुम्हारी बदनामी के सिवा, मुझे अपनी बदनामी का भी ख़ौफ़ था; पर अब मुझे ज़रा भी ख़ौफ़ नहीं है। मैं अपनी ही तरफ़ से बेफ़िक्र नहीं हूँ, तुम्हारी तरफ़ से बेफ़िक्र हूँ। मेरी जान रहते कोई तुम्हारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता।’
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