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उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


अमर ने जैसे मित्र के मोटी अक़्ल से हताश होकर कहा–‘नहीं, मैंने उनसे जिक्र करने की ज़रूरत नहीं समझी। तुमसे भी सलाह लेने नहीं आया हूँ; सिर्फ़ दिल को बोझ हलका करने के लिए। मेरा इरादा पक्का हो चुका है। अगर सकीना ने मायूस कर दिया, तो ज़िन्दगी का ख़ात्मा कर दूँगा। राज़ी हुई, तो हम दोनों चुपके से कहीं चले जायेंगे। किसी को ख़बर भी न होगी। दो-चार महीने बाद घरवालों को सूचना दे दूँगा। न कोई तहलक़ा मचेगा, न कोई तूफ़ान आयेगा। यह मेरा प्रोग्राम। मैं इसी वक़्त उसके पास जाता हूँ, अगर उसने मंजूर कर लिया, तो लौटकर फिर यहीं आऊँगा, और मायूस किया तो मेरी सूरत न देखोगे।’

यह कहता हुआ वह उठ खड़ा हुआ और तेज़ी से गोबर्धन सराय की तरफ़ चला चला। सलीम उसे रोकने का इरादा करके भी न रोक सका। शायद वह समझ गया था कि इस वक़्त इसके सिर पर भूत सवार है, किसी की न सुनेगा।

माघ की रात। कड़ाके की सर्दी। आकाश पर धुआँ छाया हुआ था। अमरकान्त अपनी धुन में मस्त चला जाता था। सकीना पर क्रोध आने लगा। मुझे पत्र तक न लिखा। एक कार्ड भी न डाला। फिर उसे एक विचित्र भय उत्पन्न हुआ। सकीना कहीं बुरा न मान जाए। उसके शब्दों का आशय यह तो नहीं था कि वह उसके साथ कहीं जाने पर तैयार है। सम्भव है, उसकी रजामन्दी से बुढ़िया ने विवाह ठीक किया हो। अगर ऐसा हुआ, तो अमर वहाँ से चुपचाप चला आयेगा। बुढ़िया आ गयी होगी तो उसके सामने उसे और भी संकोच होगा। वह सकीना से एकान्त वार्तालाप का अवसर चाहता था।

सकीना के द्वार पर पहुँचा, तो उसका दिल धड़क रहा था। उसने एक क्षण कान लगाकर सुना। किसी की आवाज़ न सुनाई दी। आँगन में प्रकाश था। शायद सकीना अकेली है। मुँहमाँगी मुराद मिली। आहिस्ता से जंजीर खटखटायी। सकीना ने पूछकर तुरन्त द्वार खोल दिया और बोली–‘अम्माँ तो आप ही के यहाँ गयी हुई हैं!’

अमर ने खड़े-खड़े जवाब दिया–‘हाँ मुझसे मिली थीं। और उन्होंने जो ख़बर सुनाई, उसने मुझे दीवाना बना रखा है। अभी तक मैंने अपने दिल का राज़ तुमसे छिपाया था सकीना, और सोचा था कि उसे कुछ दिन और छिपाए रहूँगा; लेकिन इस ख़बर ने मुझे मजबूर कर दिया है कि तुमसे वह राज़ कहूँ। तुम सुनकर जो फैसला करोगी, उसी पर मेरी ज़िन्दगी का दारोमदार है, तुम्हारे पैरों पर पड़ा हूँ, चाहे ठुकरा दो, या उठाकर सीने से लगा लो। कह नहीं सकता यह आग मेरे दिल में क्योंकर लगी; लेकिन जिस दिन तुम्हें पहली बार देखा, उसी दिन से एक चिनगारी-सी अन्दर बैठ गयी और अब वह शोला बन गयी है। और अगर उसे जल्द बुझाया न गया, तो मुझे जलाकर ख़ाक कर देगी। मैंने बहुत ज़ब्त किया है सकीना, घुट-घुटकर रह गया हूँ; मगर तुमने मना कर दिया था, आने का हौसला न हुआ। तुम्हारे क़दमों पर मैं सब कुछ कुरबान कर चुका हूँ। वह घर मेरे लिए जेलख़ाने से बदतर है। मेरी हसीन बीवी मुझे संगमरमर की मूरत सी लगती है, जिसमें दिल नहीं, दर्द नहीं। तुम्हें पाकर सब कुछ पा जाऊँगा!’

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