उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सलीम ने पूछा–‘अगर वह कहे तुम मुसलमान हो जाओ?’
‘वह यह नहीं कह सकती।’
‘मान लो, कहो।’
‘तो मैं उसी वक़्त एक मौलवी को बुलाकर क़लमा पढ़ लूँगा। मुझे इसलाम में ऐसी कोई बात नहीं नज़र आती, जिसे मेरी आत्मा स्वीकार न करती हो। धर्म-तत्त्व सब एक हैं। हज़रत मुहम्मद को ख़ुदा का रसूल मुझे कोई आपत्ति नहीं। जिस सेवा, त्याग, दया, आत्म-शुद्धि पर हिन्दू धर्म बुनियाद क़ायम है, उसी पर इसलाम की बुनियाद भी क़ायम है। इसलाम मुझे बुद्ध कृष्ण और राम की ताज़ीम करने से नहीं रोकता। मैं इस वक़्त अपनी इच्छा से हिन्दू नहीं हूँ; बल्कि इसलिए कि हिन्दू घर में पैदा हुआ हूँ। तब भी मैं अपनी इच्छा से मुसलमान न हूँगा; बल्कि इसलिए कि सकीना की मरजी है। मेरा अपना ईमान यह है कि मज़हब आत्मा के लिए बन्धन है। मेरी अक़्ल जिसे क़बूल करे, वही मेरा मज़हब है। बाकी सब खुराफा़त।’
सलीम इस जवाब के लिए तैयार न था। इस जवाब ने उसे निःशस्त्र कर दिया। ऐसे मनोदूगारों ने उसके अन्तःकरण को कभी स्पर्श न किया था। प्रेम को वह वासना मात्र समझता था। उसे ज़रा से उद्गार को इतना वृद्ध रूप देना, उनके लिए इतनी क़ुरबानियाँ करना, सारी दुनिया में बदनाम होना चारों ओर एक तहलक़ा मचा देना, उसे पागलपन मालूम होता था।
उसने सिर हिलाकर कहा–‘सकीना कभी मंजूर न करेगी।’
अमर ने शान्त भाव से कहा–‘तुम ऐसा क्यों समझते हो?’
‘इसलिए कि अगर ज़रा भी अक़ल है, तो वह एक ख़ानदान को भी तबाह न करेगी।’
‘इसके यह माने हैं कि उसे मेरे ख़ानदान की मुहब्बत मुझसे ज़्यादा है। फिर मेरी समझ में नहीं आता कि मेरा ख़ानदान क्य़ों तबाह हो जायेगा। दादा को और सुखदा को दौलत मुझसे ज़्यादा प्यारी है। बच्चे को तब भी मैं इसी तरह प्यार कर सकता हूँ। ज़्यादा-से-ज़्यादा इतना होगा कि मैं घर में न जाऊँगा और उनके घड़े-मटके न छूऊँगा।’
सलीम ने पूछा–‘डॉक्टर शान्तिकुमार से भी इसका जिक्र किया है?’
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