उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
उसने सिर झुकाकर कहा–‘मुझे अब तजुर्बा हो रहा है कि मैं औरतों को खुश नहीं रख सकता। मुझमें वह लियाक़त ही नहीं है। मैंने तय कर लिया है कि सकीना पर जुल्म न करूँगा।’
‘तो कम-से-कम अपना फ़ैसला उसे लिख तो देते।’
अमर ने हसरत-भरी आवाज़ में कहा–‘यह काम इतना आसान नहीं है सलीम, जितना तुम समझते हो। उसे याद करके मैं अब भी बेताब हो जाता हूँ। उसके साथ मेरी ज़िन्दगी जन्नत बन जाती। उसकी इस वफ़ा पर मर जाने को जी चाहता है कि अभी तक...’
यह कहते-कहते अमर का कण्ठ-स्वर भारी हो गया।
सलीम ने एक क्षण के बाद कहा–‘मान लो मैं उसे अपने साथ शादी करने पर राज़ी कर लूँ तो तुम्हें नागवार होगा?’
अमर को आँखें-सी मिल गयीं–‘नहीं भाईजान, बिलकुल नहीं। अगर तुम उसे राज़ी कर सको, तो मैं समझूँगा, तुमसे ज़्यादा ख़ुशनशीब आदमी दुनिया में नहीं है; लेकिन तुम मज़ाक कर रहे हो। तुम किसी नवाबज़ादी से शादी करने का ख़याल कर रहे होगे।’
दोनों खाना खा चुके और हाथ धोकर दूसरे कमरे में लेटे।
सलीम ने हुक्क़े का कश लगाकर कहा–‘क्या तुम समझते हो, मैं मज़ाक कर रहा हूँ? उस वक़्त मैंने ज़रूर मज़ाक किया था; लेकिन इतने दिनों में मैंने उसे खूब परखा। उस वक़्त तुम उससे न मिल जाते, तो इसमें ज़रा भी शक नहीं है कि वह इस वक़्त कहीं और होती। तुम्हें पाकर उसे फिर किसी की ख़्वाहिश नहीं रही। तुमने उसे कीचड़ से निकालकर मन्दिर की देवी बना दिया। और देवी की जगह बैठकर वह सचमुच देवी हो गयी। अगर तुम उससे शादी कर सकते हो तो शौक़ से कर लो। मैं तो मस्त हूँ ही, दिलचस्पी का दूसरा सामान तलाश कर लूँगा, लेकिन तुम न करना चाहो, तो मेरे रास्ते से हट जाओ! अब तो तुम्हारी बीबी तुम्हारे ही पथ में आ गयी। अब तुम्हारे लिए उससे मुँह फेरने का कोई सबब नहीं है।’
अमर ने हुक़्क़ा अपनी तरफ़ खींचकर कहा–‘मैं बड़े शौक़ से तुम्हारे रास्ते से हट जाता हूँ; लेकिन एक बात बतला दो, तुम सकीना को भी दिलचस्पी की चीज़ समझ रहे हो, या उसे दिल से प्यार करते हो।
सलीम उठ बैठे–‘देखो अमर, मैंने तुमसे कभी परदा नहीं रखा इसलिए आज भी परदा न रखूँगा। सकीना प्यार करने की चीज़ नहीं, पूजने की चीज़ है। कम-से-कम मुझे वह ऐसी ही मालूम होती है। मैं क़सम तो नहीं खाता कि उससे शादी हो जाने पर मैं कण्ठी-माला पहन लूँगा; लेकिन इतना जानता हूँ कि उसे पाकर मैं ज़िन्दगी में कुछ कर सकूँगा। अब तक वह मेरी ज़िन्दगी सैलानीपन में गुज़री है। वह मेरी बहती हुई नाव का लंगर होगी। इस लंगर के बग़ैर नहीं जानता मेरी नाव किस भँवर में पड़ जायेगी। मेरे लिए ऐसी औरत की ज़रूरत है, जो मुझ पर हुकूमत करे, मेरी लगाम को खींचती रहे।’
|