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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


अमर के विचार में अफ़सरों को सच्चरित्र होना चाहिए था। सलीम सच्चरित्रता का क़ायल न था। दोनों मित्र में बहस हो गयी।

सलीम ने कहा–‘ख़ुश्क आदमी कभी अच्छा अफ़सर नहीं हो सकता।’

अमर बोला–‘सच्चरित्र होने के लिए ख़ुश्क होना ज़रूरी नहीं।’

मैंने तो मुल्लाओं को हमेशा ख़ुश्क ही देखा। अफ़सरों के लिए महज़ क़ानून की पाबन्दी काफ़ी नहीं। मेरे ख़याल में तो थोड़ी-सी कमजोरी इन्सान का ज़ेवर है। मैं ज़िन्दगी में तुमसे ज़्यादा कामयाब रहा। मुझे दावा है कि मुझसे कोई नाराज़ नहीं है। तुम अपनी बीबी तक को ख़ुश न रख सके। मैं इस मुल्लापन को दूर से सलाम करता हूँ। तुम किसी ज़िले के अफ़सर बना दिये जाओ, तो एक दिन न रह सको। किसी को ख़ुश न रख सकोगे।’

अमर ने बहस को तूल देना उचित न समझा; क्योंकि बहस में वह बहुत गर्म हो जाया करता था।

भोजन का समय आ गया था। सलीम ने एक शाल निकालकर अमर को ओढ़ा दिया। एक रेशमी स्लीपर उसे पहनने को दिया। फिर दोनों ने भोजन किया। एक मुद्दत के बाद अमर को ऐसा स्वादिष्ट भोजन मिला। माँस तो उसने न खाया; लेकिन और सब चीज़ें मज़े से खायीं।

सलीम ने पूछा–‘जो चीज़ खाने की थी, वह तो आपने निकालकर रख दी।’

अमर ने अपराधी भाव से कहा–‘मुझे कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन भीतर से इच्छा नहीं होती। और कहो, वहाँ की क्या ख़बरें हैं? कहीं शादी-वादी ठीक हुई? इतनी क़सर बाकी है, उसे भी पूरी कर लो।’

सलीम ने चुटकी ली–‘मेरी शादी की फिक्र छोड़ो, पहले यह बताओ कि सकीना से तुम्हारी शादी कब हो रही है? वह बेचारी तुम्हारे इन्तजार में बैठी हुई है।’

अमर का चेहरा फ़ीका पड़ गया। यह ऐसा प्रश्न था, जिसका उत्तर देना उसके लिए संसार में सबसे मुश्किल काम था। मन की जिस दशा में वह सकीना की ओर लपका था, वह दशा अब न रही थी। तब सुखदा उसके जीवन में एक बाधा के रूप में खड़ी थी। दोनों की मनोवृत्तियों में कोई मेल न था। दोनो जीवन को भिन्न-भिन्न कोण से देखते थे। एक में भी यह सामर्थ्य न थी कि वह दूसरे को हम-ख़याल बना लेता; लेकिन अब वह हालत न थी। किसी दैवी विधान ने उनके सामाजिक बन्धन को कसकर उनकी आत्माओं को मिला दिया था। अमर को पता नहीं, सुखदा ने उसे क्षमा प्रदान की या नहीं; लेकिन वह अब सुखदा का उपासक था। उसे आश्चर्य होता था कि वह विलासिनी सुखदा ऐसी तपस्विनी क्योंकर हो गयी और यह आश्चर्य उसके अनुराग को दिन-दिन प्रबल करता जाता था। उसे अब अपने उस असन्तोष का कारण अपनी ही अयोग्यता में छिपा हुआ मालूम होता था, अगर वह अब सुखदा को कोई पत्र न लिख सका, तो इसके दो कारण थे–एक तो लज्जा और दूसरा अपनी पराजय की कल्पना। शासन का वह पुरुषोचित भाव मानो उसका परिहास कर रहा था। सुखदा स्वच्चन्द रूप से अपने लिए एक नया मार्ग निकाल सकती है, उसकी उसे लेशमात्र भी आवश्यकता नहीं है, यह विचार उसके अनुराग की गर्दन को जैसे दबा देता था। वह अब अधिक-से-अधिक उसका अनुगामी हो सकता है। सुखदा उसे समर क्षेत्र में जाते समय केसरिया तिलक लगाकर सन्तुष्ट नहीं है, वह उससे पहले समर में कूदी जा रही है, यह भाव उसके आत्मगौरव को चोट पहुँचाता था।

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