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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सलीम ने सोचा, कितनी लचर-सी बात है। देहातियों के साथ रहकर अक़्ल भी खो बैठा। बोला–‘खाना भी तो महज़ जिस्म की परवरिश के लिए खाया जाता है, तो सूखे चने क्यों नहीं चबाते? सूखे गेहूँ क्यों नहीं फाँकते? क्यों हलवा और मिठाई उड़ाते हो?’

‘मैं सूखे चने ही चबाता हूँ।’

‘झूठे हो। सूखे चनों पर ही यह सीना निकल आया है। मुझसे ड्योढ़े हो गये, मैं तो शायद पहचान भी न सकता।’

‘जी हाँ, यह सूखे चनों की ही बरकत है। ताक़त साफ़ हवा और संयम में है। हलवा पूरी से ताक़त नहीं होती, सीना नहीं निकलता। पेट निकल आता है। पच्चीस मील पैदल चला आ रहा हूँ। है दम! ज़रा पाँच मील चलो मेरे साथ।’

‘मुआफ़ कीजिए। किसी ने कहा है–बड़ी रानी, तो आओ पीसो मेरे साथ। तुम्हें पसीना मुबारक हो। तुम यहाँ क्या कर रहो हो?’

‘अब तो आये हो, ख़ुद ही देख लोगे। मैंने ज़िन्दगी का जो नक्शा दिल में खींचा था, उसी पर अमल कर रहा हूँ। स्वामी आत्मानन्द के आ जाने से काम में और भी सहूलियत हो रही है।’

ठण्ड ज़्यादा थी। सलीम को मज़बूर होकर अमरकान्त को अपने कमरे में लाना पड़ा।

अमर ने देखा, कमरे में गद्देदार कोच है, पीतल के गमले हैं, ज़मीन पर कालीन है, मध्य में संगमरमर की गोल मेज़ है।

अमर ने दरवाज़े पर जूते उतार दिये और बोला– ‘केवाड़ बन्द कर दूँ, नहीं कोई देख ले, तो तुम्हें शर्मिन्दा होना पड़े। तुम साहब ठहरे।’

सलीम पते की बात सुनकर झेप गया। बोला–‘कुछ-न-कुछ ख़याल तो होता है भई, हालाँकि मैं फ़ैशन का ग़ुलाम नहीं हूँ। मैं भी सादी जिऩ्दगी बसर करना चाहता था; लेकिन अब्बाजान की फ़रमाइश कैसे टालता? प्रिंसिपल तक कहते थे, तुम पास नहीं हो सकते; लेकिन रिज़ल्ट निकला तो सब दंग रह गये। तुम्हारे ख़याल से मैंने यह ज़िला पसन्द किया। कल तुम्हें कलेक्टर से मिलाऊँगा। अभी मिं. ग़ज़नवी से तो तुम्हारी मुलाकात न होगी। बड़ा शौक़ीन आदमी है; मगर दिल का साफ़। पहली ही मुलाकात में उससे मेरी बेतकल्लुफ़ी हो गयी। चालीस के क़रीब होंगे, मगर कम्पेबाज़ी नहीं छोड़ी।’

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