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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सहसा मोटर रुकी और डिप्टी ने उतरकर सुखदा से कहा–‘देवी जी,जेल आ गया। मुझे क्षमा कीजिएगा।’

सुखदा ऐसी प्रसन्न थी, मानो अपने जीवन-धन से मिलने आयी है

चौथा भाग

अमरकान्त को ज्योंहि मालूम हुआ कि सलीम यहाँ का अफ़सर होकर आया है, वह उससे मिलने चला; समझा ख़ूब गप-शप होगी। यह ख़ायल तो आया कहीं उसमें अफ़सरी की बू न आ गयी हो; लेकिन पुराने दोस्त से मिलने की उत्कण्ठा को न रोक सका। बीस-पच्चीस मील का पहाड़ी रास्ता था। ठण्ड खूब पड़ने लगी थी। आकाश कुहरे की धुन्ध से मटियाला हो रहा था और उस धुन्ध में सूर्य जैसे टटोल-टटोलकर रास्ता ढूँढ़ता हुआ चला जाता था। कभी सामने आ जाता, कभी छिप जाता। अमर दोपहर के बाद चला था। उसे आशा थी, दिन रहते पहुँच जाऊँगा; किन्तु दिन ढलता जाता था और मालूम नहीं अभी और कितना रास्ता बाकी है। उसके पास केवल एक देसी कम्बल था। कहीं रात हो गयी, तो किसी वृक्ष के नीचे टिकना पड़ जायेगा। देखते ही देखते सूर्यदेव अस्त भी हो गये। अँधेरा जैसे मुँह खोले संसार को निगलने चला आ रहा था। अमर ने क़दम और तेज़ किये। शहर में दाख़िल हुआ तो आठ बज गये थे।

सलीम उसी वक़्त क्लब से लौटा था। ख़बर पाते ही बाहर निकल आया, मगर उसकी सज-धज देखी, तो झिझक और गले मिलने के बदले हाथ बढ़ा दिया। अरदली सामने ही खड़ा था। उसके सामने इस देहाती से किसी प्रकार घनिष्टता का परिचय देना बड़े साहस का काम था। उसे अपने सजे हुए कमरे में भी न ले जा सका। अहाते में छोटा-सा बाग था। एक वृक्ष के नीचे उसे ले जाकर उसने कहा–‘यह तुमने क्या धज बना रखी है जी, इतने हूश कब से हो गये? वाह रे आपका कुरता! मालूम होता है डाक का थैला है, और यह डाबलूश जूता किस दिसावर से मँगवाया है? मुझे डर है, कहीं बेगार में न धर लिये जाओ!’

अमर वहीं ज़मीन पर बैठ गया और बोला–‘कुछ ख़ातिर-तवाज़ा तो की नहीं, उलटे और फटकार सुनाने लगे। देहातियों में रहता हूँ, जेंटलमैन बनूँ तो कैसे निबाह हो? तुम ख़ूब आये भाई, कभी-कभी गपशप हुआ करेगी। उधर की खैरआफ़ित कहो। यह तुमने नौकरी क्या कर ली। डटकर कोई रोज़गार करते, सूझी भी तो ग़ुलामी।’

सलीम ने गर्व से कहा–‘गुलामी नहीं है, जनाब, हुकूमत है। दस पाँच दिन में मोटर आयी जाती है, फिर देखना किस शान से निकलता हूँ; मगर तुम्हारी हालत देखकर दिल टूट गया। तुम्हें यह भेस छोड़ना पड़ेगा।’

अमर के आत्मसम्मान को चोट लगी। बोला–‘मेरा ख़याल था, और है कि कपड़े महज जिस्म की हिफ़ाज़त के लिए हैं, शान दिखाने के लिए नहीं।

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