उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
नैना ने उसका चुम्बन लेकर कहा–‘बालक बड़े निर्दयी होते हैं।’
सुखदा ने मुस्कराकर कहा–‘लड़का किसका है!’
द्वार पर पहुँचकर फिर दोनों गले मिलीं समरकान्त भी ड्योढ़ी पर खड़े थे। सुखदा ने उनके चरणों पर सिर झुकाया। उन्होंने काँपते हुए हाथों से उसे उठाकर आशीर्वाद दिया। फिर मुन्ने को कलेजे से लगाकर फूट-फूटकर रोने लगे। यह सारे घर को रोने का सिगनल था। आँसू तो पहले ही से निकल रहे थे। वह मूक रुदन अब जैसे बन्धनों से मुक्त हो गया। शीतल, धीर, गम्भीर बुढ़ापा जब विह्वल हो जाता है, तो मानो पिंजरे के द्वार ख़ुल जाते हैं और पक्षियों को रोकना असंभव हो जाता है। जब सत्तर वर्ष तक संसार के समर में जमा रहने वाले नायक हथियार डाल दे, तो रंगरूटों को कौन रोक सकता है।
सुखदा मोटर में बैठी। जय–जयकार ध्वनि हुई! फूलों की वर्षा की गयी। मोटर चल दी।
हज़ारों आदमी मोटर के पीछे दौड़ रहे थे और सुखदा हाथ उठाकर उन्हें प्रणाम करती जाती थी। यह श्रद्धा, यह प्रेम, यह सम्मान क्या धन से मिल सकता है? या विद्या से इसका केवल एक ही साधन है, और वह सेवा है, और सुखदा को अभी इस क्षेत्र में आये हुए ही कितने दिन थे?
सड़क के दोनों ओर नर-नारियों की दीवार खड़ी थी और मोटर मानो उनके हृदय को कुचलती-मसलती चली जा रही थी।
सुखदा के हृदय में गर्व न था, उल्लास न था, द्वेष न था, केवल वेदना थी। जनता की इस दयनीय दशा पर, इस अधोगति पर, जो डूबती हूई दशा में तिनके का सहारा पाकर भी कृतार्थ हो जाती है।
कुछ देर के बाद सड़क पर सन्नाटा था, सावन की निद्रा-सी काली रात संसार को अपने अंचल में सुला रही थी और मोटर अनन्त में स्वप्न की भाँति उड़ी चली जाती थी। केवल देह में ठण्डी हवा लगने से गति का ज्ञान होता था। इस अन्धकार में सुखदा के अन्तस्तल में एक प्रकाश-सा उदय हुआ। कुछ वैसा ही प्रकाश, जो हमारे जीवन की अन्तिम घड़ियों में उदय होता है, जिसमें मन की सारी कालिमाएँ, सारी ग्रन्थियाँ, सारी विषमताएँ अपने यथार्थ रूप में नज़र आने लगती हैं। तब हमें मालूम होता है कि जिसे हमने अन्धाकर में काला देव समझा था, वह केवल तृण का ढेर था। जिसे काला नाग समझा था, वह रस्सी का एक टुकड़ा था। आज उसे अपनी पराजय का ज्ञान हुआ, अन्याय के सामने नहीं, असत्य के सामने नहीं, बल्कि त्याग के सामने और सेवा के सामने। इसी सेवा और त्याग के पीछे तो उसका पति से मतभेद हुआ था, जो अन्त में इस वियोग का कारण हुआ। उन सिद्धान्तों से अभक्ति रखते हुए भी वह उनकी ओर खिंचती चली आती थी और आज वह अपने पति की अनुगामिनी थी। उसे अमर के उस पत्र की याद आयी, जो उसने शान्तिकुमार के पास भेजा था और पहली बार पति के क्षमा का भाव उसके मन में प्रस्फुटित हुआ। इस क्षमा में दया नहीं, सहानुभूति थी, सहयोगिता थी। अब दोनों एक ही मार्ग के पथिक हैं, एक ही आदर्श के उपासक हैं। उनमें कोई भेद नहीं है, कोई वैषम्य नहीं है। आज पहली बार उसका अपने पति से आत्मिक सामंजस्य हुआ। जिस देवता को अमंगलकारी समझ रखा था, उसी की आज धूप-दीप से पूजा कर रही थी।
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