उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
ये शब्द फोड़े की तरह उसी समय उसके हृदय में टीस रहे थे, जब से उसने सुखदा की गिरफ्तारी की ख़बर सुनी थी, और यह टीस उसकी मोह वेदना को और भी दुर्दान्त बना रही थी।
सुखदा ने आश्चर्य से उसके मुँह की ओर देखकर कहा– ‘यह तुम क्या कह रही है बीबी क्या तुमने पुलिस बुलायी है।’
नैना ने ग्लानि से भरे कण्ठ से कहा–‘यह पत्थर की हवेली वालों का कुचक्र है (सेठ धनीराम शहर में इसी नाम से प्रसिद्ध थे)। मैं किसी को गालियाँ नहीं देती पर उनका किया आगे आवेगा। जिस आदमी के लिए एक मुँह से भी आशीर्वाद न निकला हो उसका जीना वृथा है।’
सुखदा ने उदास होकर कहा–‘उनका इसमें क्या दोष है बीबी? यह सब हमारे समाज का, हमसबों का दोष है। अच्छा आओ अब विदा हो जायँ। वादा करो, मेरे जाने पर रोओगी नहीं।’
नैना ने उसके गले से लिपटकर सूजी हुई लाल आँखों से मुस्कराकर कहा–‘नहीं रोऊँगी भाभी।
‘अगर मैंने सुना कि तुम रो रही हो, तो मैं अपनी सज़ा बढ़वा लूँगी।’
‘भैया को यह समाचार देना ही होगा।’
‘तुम्हारी जैसा इच्छा हो करना। अम्माँ को समझाती रहना।’
‘उनके पास कोई आदमी भेजा गया या नहीं?’
‘उन्हें बुलाने से और देर ही तो होती। घण्टों न छोड़तीं।’
‘सुनकर दौड़ी आवेंगी।’
‘हाँ, आवेंगी तो; पर रोयेंगी नहीं। उनका प्रेम आँखों में है। हृदय तक उसकी जड़ नहीं पहुँचती।’
दोनों द्वार की ओर चलीं। नैना ने मुन्ने को माँ की गोद से उतारकर प्यार करना चाहा; वह न उतरा। नैना से बहुत हिला था; पर आज वह अबोध आँखों से देख रहा था–माता कहीं जा रही है। उसकी गोद से कैसे उतरे? उसे छोड़कर वह चली जाय,तो बेचारा क्या कर लेगा?
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