उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
नैना ने उसके मुँह के पास कौर ले जाकर कहा–‘बस यही कौर और ले लो, मेरी अच्छी भाभी।’
सुखदा ने मुँह खोल दिया और ग्रास के साथ आँसू भी पी गयी।
‘बस एक और।’
‘अब एक कौर भी नहीं।
‘मेरी ख़ातिर से।’
सुखदा ने ग्रास ले लिया।
‘पानी भी दोगी या खिलाती ही जाओगी?’
‘बस, एक ग्रास भैया के नाम का और ले लो।’
‘ना। किसी तरह नहीं।’
नैना की आँखों में आँसू थे प्रत्यक्ष, सुखदा की आँखों में भी आँसू थे; मगर छिपे हुए नैना शोक से विह्वल थी, सुखदा उसे मनोबल से दबाये हुए थी। वह एक बार निष्ठुर बनकर चलते-चलते नैना के मोह-बन्धन को तोड़ देना चाहती थी, पैने शब्दों से हृदय के चारों ओर खाई खोद देना चाहती थी, मोह और शोक और वियोग व्यथा के आक्रमणों से उसकी रक्षा करने के लिए; पर नैना की छलछलाती हुई आँखें, वह काँपते हुए ओठ, वह विनय-दीन मुखश्री उसे निःशस्त्र किये देती थी।
नैना ने जल्दी-जल्दी पान के बीड़े लगाये और भाभी को खिलाने लगी, तो उसके दबे हुए आँसू फव्वारे की तरह उबल पड़े। मुँह ढाँपकर रोने लगी। सिसकियाँ और गहरी होकर कण्ठ तक जा पहुंची।’
सुखदा ने उसे गले से लगाकर सजल शब्दों में कहा– ‘क्यों रोती हो बीबी, बीच-बीच में मुलाकात तो होती ही रहेगी। जेल में मुझसे मिलने आना तो खूब अच्छी-अच्छी चीजें बनाकर लाना। दो चार महीने में तो मैं फिर आ जाऊँगी।’
नैना ने जैसे डूबती हुई नाव पर से कहा–‘मैं ऐसी अभागिन हूँ कि आप तो डूबी ही थी, तुम्हें भी ले डूबी।’
|