उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सेठजी ने सन्दूक से दस अशर्फ़ियाँ निकालीं और चुपके से डिप्टी की जेब में डालते हुए बोले–‘यह बच्चों के मिठाई खाने के लिए हैं।’
डिप्टी ने अशर्फ़ियाँ जेब से निकालकर मेज़ पर रख दीं और बोला–‘आप पुलिस वालों को बिलकुल जानवर ही समझते हैं क्या सेठजी? क्या लाल पगड़ी सिर पर रखना ही इन्सानियत का ख़ून करना है? मैं आपको यक़ीन दिलाता हूँ कि देवीजी को तक़लीफ़ न होने पावेगी। तकलीफ़ उन्हें दी जाती है जो दूसरों को तकलीफ़ देते हैं। जो ग़रीबों के हक़ के लिए अपनी ज़िन्दगी कुरबान कर दे, उसे एक कोई सताये, तो वह इन्सान नहीं, हैवान भी नहीं, शैतान है। हमारे सीग़ में ऐसा आदमी है और कसरत से हैं। मैं ख़ुद फरिश्ता नहीं हूँ, लेकिन ऐसे मुआमले में मैं पान तक खाना हराम समझता हूँ। मन्दिर वाले मुआमले में देवीजी जिस दिलेरी से मैदान में आकर गोलियों के सामने खड़ी हो गयी थीं, वह उन्हीं का काम था।’
सामने सड़क पर जनता का समूह प्रतिक्षण बढ़ाया जाता था। बार-बार जय-जयकार की ध्वनि उठ रही थी। स्त्री और पुरुष देवीजी के दर्शन को भागे चले आते थे।
भीतर नैना और सुखदा में समर छिड़ा हुआ था।
सुखदा ने थाली सामने से हटाकर कहा–‘मैंने कह दिया, मैं कुछ न खाऊँगी।’
नैना ने उसका हाथ पकड़कर कहा–‘दो-चार कौर ही खा लो भाभी, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ। फिर न जाने यह दिन कब आये?’
उसकी आँखें सजल हो गयीं।
सुखदा निष्ठुरता से बोली–‘तुम मुझे व्यर्थ में दिक कर रही हो बीबी मुझे अभी बहुत सी तैयारियाँ करनी हैं और उधर डिप्टी जल्दी मचा रहा है। देखती नहीं हो, द्वार पर डोली है। इस वक़्त खाने की किसे सूझती है?’
नैना प्रेम विह्वल कण्ठ से बोली–‘तुम अपना काम करती रहो, मैं तुम्हें कौर बनाकर खिलाती जाऊँगी।’
जैसे माता खेलन्दे बच्चे के पीछे दौड़-दौड़कर उसे खिलाती है, उसी तरह नैना भाभी को खिलाने लगी। सुखदा कभी इस अलमारी के पास जाती, कभी उस सन्दूक के पास। किसी सन्दूक में सिन्दूर की डिबिया निकालती; किसी से साड़ियाँ। नैना एक कौर खिलाकर फिर थाल के पास जाती और दूसरा कौर लेकर दौड़ती।
सुखदा ने पाँच-छः कौर खाकर कहा–‘बस, अब पानी पिला दो।’
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