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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


अमर को अपना जीवन इसलिए भार था कि वह अपनी स्त्री पर शासन न कर सकता था। सलीम ऐसी स्त्री चाहता था जो उस पर शासन करे, और मज़ा यह था कि दोनों एक सुन्दरी में मनोनीत लक्षण देख रहे थे।

अमर ने कुतूहल से कहा–‘मैं तो समझता हूँ सकीना में वह बात नहीं है, जो तुम चाहते हो।’

सलीम जैसे गहराई में डूबकर बोला–‘तुम्हारे लिए नहीं है; मगर मेरे लिए है। वह तुम्हारी पूजा करती है, मैं उसकी पूजा करता हूँ।’

इसके बाद कोई दो-ढाई बजे रात तक दोनों में इधर-उधर की बातें होती रहीं। सलीम ने उसे नये आन्दोलन की भी चर्चा की, जो उनके सामने शुरू हो चुका था, और यह भी कहा कि उसके सफल होने की आशा नहीं है। सम्भव है, मुआमला तूल खींचे।

अमर ने विस्मय के साथ कहा–‘तब तो यों कहो, सुखदा ने वहाँ नयी जान डाल दी।’

‘तुम्हारी सास ने अपनी सारी जायदाद सेवाश्रम के नाम वक़्फ़ कर दी।’

‘अच्छा!’

‘और तुम्हारे पिदर बुजुर्गवार भी अब कौमी कामों में शरीक होने लगे हैं।’

‘तब तो वहाँ पूरा इनक़लाब हो गया!’

सलीम तो सो गया, लेकिन अमर दिनभर का थका होने पर भी नींद को न बुला सका। वह जिन बातों की कल्पना भी न कर सकता था वह सुखदा के हाथों पूरी हो गयीं; मगर कुछ भी हो, वही अमीरी, ज़रा बदलती हुई सूरत में। नाम की लालसा है और कुछ नहीं; मगर फिर उसने अपने को धिक्कारा। तुम किसी के अन्तःकरण की बात क्या जानते हो? आज हज़ारों आदमी राष्ट्र की सेवा में लगे हुए हैं। कौन कह सकता है, कौन स्वार्थी है, कौन सच्चा सेवक?

न जाने कब उसे भी नींद आ गयी।

अमरकान्त के जीवन में एक नया उत्साह चमक उठा है। ऐसा जान पड़ता है कि अपनी जीवन-यात्रा में वह अब एक नये घोड़े पर सवार हो गया है। पहले पुराने घोड़े को एड़ और चाबुक लगाने की ज़रूरत पड़ती थी। यह नया घोड़ा कनौतियाँ खड़ी किये सरपट भागता चला जाता है। स्वामी आत्मानन्द, काशी, पयाग, गूदड़ सभी से उसकी तकरार हो जाती है। इन लोगों के पास वही पुराने घोड़े हैं। दौड़ में पिछड़ जाते हैं। अमर उनकी मन्दगति पर बिगड़ता है–‘इस तरह तो काम नहीं चलने का स्वामीजी। आप काम करते हैं कि मज़ाक करते हैं? इससे तो कहीं अच्छा था कि आप सेवाश्रम में बने रहते।’

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