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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


संध्या हो गयी थी। बादल ख़ुल गये थे और चाँद की सुनहरी जोत पृथ्वी के आँसुओं से भीगे हुए मुख पर जैसे मातृ-स्नेह की वर्षा कर रही थी। सुखदा संध्या करने बैठी हुई थी। उस गहरे आत्मचिंतन में उसके मन की दुर्बलता किसी हठीले बालक की भाँति रोती हुई मालूम हुई। क्या मनीराम ने उसका वह अपमान न किया होता, तो वह हड़ताल के लिए इतना ज़ोर लगाती?

उसके अभिमान ने कहा–हाँ-हाँ, ज़रूर लगाती। यह विचार बहुत पहले उसके मन में आया था। धनीराम को हानि होती है, तो हो; इस भय से वह कर्त्तव्य का त्याग क्यों करे? जब वह अपना सर्वस्व इस उद्योग के लिए होम करने को तुली हुई है, तो दूसरों के हानि-लाभ की उसे क्या चिन्ता हो सकती है?’

इस तरह मन को समझाकर उसे संध्या समाप्त की और नीचे उतरी थी कि लाला समरकान्त आकर खड़े हो गये। उनके मुख पर विषाद की रेखा झलक रही थी और ओठ इस तरह फड़क रहे थे, मानो मन का आवेश बाहर निकलने के लिए विकल हो रहा हो।

सुखदा ने पूछा–‘आप कुछ घबराये हुए हैं, दादाजी, क्या बात है?’

समरकान्त की सारी देह जैसे काँप उठी। आँसुओं के वेग को बलपूर्वक रोकने की चेष्टा करके बोला–‘एक पुलिस कर्मचारी अभी दुकान पर ऐसी सूचना दे गया है कि क्या कहूँ...’

यह कहते-कहते उनका कण्ठ-स्वर जैसे गहरे जल में डुबकियाँ खाने लगा।

सुखदा ने आशंकित होकर पूछा–‘तो कहिए न, क्या कह गया है। हरिद्वार में तो सब कुशल है?’

समरकान्त ने उसकी आशंकाओं को दूसरी ओर बहकते देख जल्दी से कहा–‘नहीं-नहीं, उधर की कोई बात नहीं है तुम्हारे विषय में था तुम्हारी गिरफ्तारी का वारण्ट निकल गया है।’

सुखदा ने हँसकर कहा–‘अच्छा! मेरी गिरफ़्तारी का वारण्ट है! तो उसके लिए आप इतना क्यों घबरा रहे हैं? मगर आख़िर मेरा अपराध क्या है?’

समरकान्त ने मन को सँभालकर कहा–‘यही हड़ताल है। आज अफ़सरों में सलाह हुई है और वहाँ यही निश्चय हुआ कि तुम्हें और चौधरियों को पकड़ लिये जाय। इनके पास दमन की एक दवा है। असंतोष के कारणों को दूर न करेंगे बस, पकड़-धकड़ से काम लेंगे, जैसे कोई माता भूख से रोते बालक को पीटकर चुप कराना चाहे।’

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