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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सुखदा शान्त भाव से बोली–‘जिस समाज का आधार ही अन्याय पर हो, उसकी सरकार के पास दमन के सिवा और क्या दवा हो सकती है; लेकिन इससे कोई यह न समझे कि यह आन्दोलन दब जायेगा, उसी तरह, जैसे कोई गेंद टक्कर खाकर और ज़ोर से उछलती है, जितने की ज़ोर की टक्कर होगी, उतने ही ज़ोर की प्रतिक्रिया भी होगी।’

एक क्षण के बाद उसने उत्तेजित होकर कहा–‘मुझे गिरफ़्तार कर लें। उन लाखों-गरीबों को कहाँ ले जायेंगे, जिनकी आहें आसमान तक पहुँच रही हैं। यही आहें एक दिन किसी ज्वालामुखी की भाँति फटकर सारे समाज और समाज के साथ सरकार को भी विध्वंश कर देगी; अगर किसी की आँखें नहीं खुलती, तो न खुले, मैंने अपना कर्त्तव्य पूरा कर दिया। एक दिन आयेगा, जब आज के देवता कल कंकर–पत्थर की तरह उठा-उठाकर गलियों में फेंक दिए जायेंगे और पैरों से ठुकराये जायेंगे। मेरे गिरफ़्तार हो जाने से चाहे कुछ दिनों के लिए अधिकारियों के कानों में हाहाकार की आवाजें न पहुँचे; लेकिन वह दिन दूर नहीं है, जब यही आँसू चिनगारी बनकर अन्याय को भस्म कर देंगे। इसी राख से वह अग्नि प्रज्वलित होगी, जिसकी आन्दोलित शिखाएँ आकाश तक को हिला देंगी।’

समरकान्त पर इस प्रलाप का कोई असर न हुआ। वह इस संकट को टालने का उपाय सोच रहे थे। डरते-डरते बोले–‘एक बात कहूँ बहू, बुरा न मानो। ज़मानत...’

सुखदा ने त्योरियाँ बदलकर कहा–‘नहीं, कदापि नहीं। मैं क्यों ज़मानत दूँ? क्या इसलिए कि अब मैं कभी ज़बान न खोलूँगी, अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लूँगी, अपने मुँह पर जाली लगा लूँगी। इससे तो यह कहीं अच्छा है कि अपनी आँखें फोड़ लूँ, ज़बान कटवा दूँ।’

समरकान्त की सहिष्णुता अब सीमा तक पहुंच चुकी थी। गरजकर बोले–‘अगर तुम्हारी ज़बान पर काबू नहीं, तो कटवा लो। मैं अपने जीते-जी यह नहीं देख सकता कि मेरी बहू गिरफ़्तार की जाये और मैं बैठा देखूँ। तुमने हड़ताल करने के लिए मुझसे पूछ क्यों न लिया? तुम्हें अपने नाम की लाज न हो, मुझे तो है। मैंने जिस मर्यादा-रक्षा के लिए अपने बेटे को त्याग दिया, उस मर्यादा को तुम्हारे हाथों न मिटने दूँगा।’

बाहर से मोटर का हार्न सुनाई दिया। सुखदा के कान खड़े हो गये। वह आवेश में द्वार की ओर चली। फिर दौड़कर मुन्ने को नैना की गोद से लेकर उसे हृदय से लगाये हुए अपने कमरे में जाकर अपने आभूषण उतारने लगी। समरकान्त का सारा क्रोध कच्चे रंग की भाँति पानी पड़ते ही उड़ गया। लपककर बाहर गये और आकर घबड़ाये हुए बोले–‘बहू, डिप्टी आ गया। मैं ज़मानत देने जा रहा हूँ। मेरी इतनी याचना स्वीकार करो। थोड़े दिनों का मेहमान हूँ। मुझे मर जाने दो, फिर जो कुछ जी में आये करना।’

सुखदा कमरे के द्वार पर आकर दृढ़ता से बोली–‘मैं ज़मानत न दूँगी, न इस मुआमले की पैरवी करूँगी। मैंने कोई अपराध नहीं किया है।’

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