उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
एक क्षण बाद उसने फिर कहा–‘अभी मैंने ऐसी कौन–सी सेवा की है कि लोगों को मुझ पर विश्वास हो। दो-चार घण्टे गलियों का चक्कर लगा लेना कोई सेवा नहीं है।’
‘मैं तो समझती हूँ, इस समय हड़ताल कराने से जनता को थोड़ी बहुत सहानुभूति जो है, वह भी गायब हो जायेगी।’
सुखदा ने अपनी जाँघ पर हाथ पटककर कहा– ‘सहानुभूति से काम चलता, तो फिर रोना किस बात का था। लोग स्वेच्छा से नीति पर चलते, तो क़ानून क्यों बनाने पड़ते। मैं इस घर में रहकर और अमीर का ठाट रखकर जनता के दिलों पर काबू नहीं पा सकती। मुझे त्याग करना पड़ेगा। इतने दिनों से सोचती ही रह गयी।’
दूसरे दिन शहर में अच्छी-खासी हड़ताल थी। मेहतर तो एक भी काम करता नज़र न आता था। कहारों और इक्के गाड़ी वालों ने भी काम बन्द कर दिया था। साग-भाजी की दुकानें भी आधी से ज़्यादा बन्द थीं। कितने ही घरों में दूध के लिए हाय-हाय मची हुई थी। पुलिस दुकानें खुलवा रही थी और मेहतरों को काम पर लाने की चेष्टा कर रही थी। उधर ज़िले के अधिकारी मण्डल में इस समस्या को हल करने का विचार हो रहा था। शहर के रईस और अमीर भी उसमें शामिल थे।
दोपहर का समय था। घटा उमड़ी चली जाती थी, जैसे आकाश पर पीला लेप किया जा रहा हो। सड़कों और गलियों में जगह-जगह पानी जमा था। उसी कीचड़ में जनता इधर-उधर दौड़ती फिरती थी। सुखदा के द्वार पर एक भीड़ लगी हुई थी कि सहसा शान्तिकुमार घुटने तक कीचड़ लपेटे आकर बरामदे में खड़े हो गये। कल की बातों के बाद आज वहाँ आते उन्हें संकोच हो रहा था। नैना ने उन्हें देखा; पर अन्दर न बुलाया! सुखदा अपनी माता से बातें कर रही थी। शान्तिकुमार एक क्षण खड़े रहे, फिर हताश होकर चलने को तैयार हुए।
सुखदा ने उनकी रोनी सूरत देखी, फिर भी उन पर व्यंग्य-प्रहार करने से न चूकी–‘किसी ने अपको यहाँ आते देख तो नहीं लिया डॉक्टर साहब?’
शान्तिकुमार ने इस व्यंग्य की चोट को विनोद से रोका–‘खूब देख–भालकर आता हूँ। कोई यहाँ देख भी लेगा, तो कह दूँगा, रुपये उधार लेने आया हूँ।’
रेणुका ने डॉक्टर साहब से देवर का नाता जोड़ लिया था। आज सुखदा ने कल का वृत्तान्त सुनाकर उसे डॉक्टर साहब को आड़े हाथों लेने की सामग्री दे दी थी, हालाँकि अदृश्य रूप से डॉक्टर साहब की नीति-भेद का कारण वह ख़ुद थी। उन्होंने ट्रस्ट का भार उनके सिर रखकर उन्हें सचिंत कर दिया था।
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