उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
नैना मन में इस हार पर ख़ुश थी। अपने घर में उसकी कुछ पूछ न थी, उसे अब तक अपमान ही अपमान मिला था, फिर भी उसका भविष्य उसी घर से सम्बद्ध हो गया था। अपनी आँखें दुखती हैं, तो फोड़ नहीं दी जातीं। सेठ धनीराम ने ज़मीन हज़ारों में खरीदी थी; थोड़े ही दिनों में लाखों में बिकने की आशा थी। वह सुखदा से कुछ कह तो न सकती थी पर यह आन्दोलन उसे बुरा मालूम होता था। सुखदा के प्रति अब उसको वह भक्ति न रही थी। अपनी द्वेष–तृष्णा शान्त करने ही के लिए तो वह आग लगा रही है! इन तुच्छ भावनाओं से दबकर सुखदा उसकी आँखों में कुछ संकुचित हो गयी थी।
नैना ने आलोचक बनकर कहा–‘अगर यहाँ के आदमियों को संगठित कर लेना इतना आसान होता, तो आज यह दुर्दशा ही क्यों होती।’
सुखदा आवेश में बोली–‘हड़ताल तो होगी, चाहे चौधरी लोग मानें या न मानें। चौधरी मोटे हो गये हैं और मोटे आदमी स्वार्थी हो जाते हैं।
नैना ने आपत्ति की–डरना मनुष्य के लिए स्वाभाविक है। जिसमें पुरुषार्थ है, ज्ञान है, बल है, वह बाधाओं को तुच्छ समझ सकता है। जिसके पास व्यंजनों से भरा हुआ थाल है, वह एक टुकड़ा कुत्ते के सामने फेंक सकता है, जिसके पास एक ही टुकड़ा हो, वह तो उसी से चिमटेगा।
सुखदा ने मानो इस कथन को सुना ही नहीं–‘मन्दिर वाले झगड़े में न जाने सभी में कैसे साहस आ गया था। मैं एक बार यही काण्ड दिखा देना चाहती हूँ।’
नैना ने काँपकर कहा–‘नहीं भाभी, इतना बड़ा भार सिर पर मत लो। समय आ जाने पर सब–कुछ आप ही हो जाता है। देखो, हम लोगों के देखते-देखते बाल–विवाह, छूत-छात का रिवाज कितना कम हो गया। शिक्षा का प्रचार कितना बढ़ गया। समय आ जाने पर ग़रीबों के घर भी बन जायेंगे।’
‘यह तो कायरों की नीति है। पुरुषार्थ वह है, जो समय को अपने अनुकूल बनावे।’
‘इसके लिए प्रचार करना चाहिए।’
‘छः महीने वाली राह है।’
‘लेकिन जोखिम तो नहीं है।’
‘जनता को मुझ पर विश्वास नहीं है।’
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