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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सुखदा ने मुस्कराकर कहा–‘बोर्ड के फ़ैसले की आपील वही है, जो इस वक़्त तुम्हारे सामने हो रही है। आप ही लोग हाईकोर्ट हैं, आप ही लोग जज हैं। बोर्ड अमीरों का मुँह देखता है। ग़रीबों के मुहल्ले खोद-खोदकर फेंक दिये जाते हैं, इसलिए कि अमीरों के महल बनें। गरीबों को दस-पाँच रुपये मुआवजा देकर उसी ज़मीन के हज़ारों वसूल किये जाते हैं। उन रुपयों से अफ़सरी को बड़ी-बड़ी तनख्वाह दी जाती है। जिस ज़मीन पर हमारा दावा था, वह लाला धनीराम को दे दी गयी। वहाँ उनके बँगले बनेंगे। बोर्ड को रुपये प्यारे हैं, तुम्हारी जान की उसकी निगाह में कोई क़ीमत नहीं। इन स्वार्थियों से इंसाफ़ की आशा छोड़ दो। तुम्हारे पास कितनी शक्ति है, उसका उन्हें ख़याल नहीं है। वे समझते हैं, यह ग़रीब लोग हमारा कर ही क्या सकते हैं? मैं कहती हूँ, तुम्हारे ही हाथों में सब कुछ है। हमें लड़ाई नहीं करनी है, फ़साद नहीं करना है। सिर्फ़ हड़ताल करना है, यह दिखाने के लिए कि तुमने बोर्ड के फ़ैसले को मंजूर नहीं किया और यह हड़ताल एक-दो दिन की नहीं होगी। यह उस वक़्त तक रहेगी, जब तक बोर्ड अपना फ़ैसला रद्द करके हमें ज़मीन न दे दे। मैं जानती हूँ, ऐसी हड़ताल करना आसान नहीं है। आप लोगों में बहुत से ऐसे हैं, जिनके घर में एक दिन का भी भोजन नहीं है; मगर यह जानती हूँ कि बिना तकलीफ़ उठाये आराम नहीं मिलता।’

सुमेर की जूते की दुकान थी। तीन-चार चमार नौकर थे। ख़ुद जूतेकाट दिया करता। मजूरी से पूँजीपति बन गया था। घास वालों और साईसों को सूद पर रुपये उधार दिया करता था। मोटी ऐनकों के पीछे से बिज्जू की भाँति ताकता हुआ बोला–‘हड़ताल होगा तो हमारी बिरादरी में मुश्किल है बहूजी। यों आपका गुलाम हूँ और जानता हूँ कि आप जो कुछ करेंगी; हमारी ही भलाई के लिए करेंगी; पर हमारी बिरादरी में हड़ताल होना मुश्किल है। बेचारे दिनभर घास काटते हैं, साँझ को बेचकर आटा-दाल जुटाते हैं, तब कहीं चूल्हा जलता है। कोई सहीस है, कोई कोचवान, बेचारों की नौकरी जाती रहेगी। अब तो सभी जाति वाले सहीसी, कोचवानी करते हैं। उनकी नौकरी दूसरे उठा लें, तो बेचारे कहाँ जायेंगे।’

सुखदा विरोध सहन न कर सकती थी। इस कठिनाइयों का उसकी निगाह में कोई मूल्य न था। तिनककर बोली–‘तो क्या तुमने समझा था कि बिना कुछ किये–धरे अच्छे मकान रहने को मिल जायेंगे? संसार में जो अधिक से अधिक कष्ट सह सकता है, उसी की विजय होती है।’

मतई जमादार ने कहा–‘हड़ताल से नुकसान तो सभी को होगा, क्या तुम हुए, क्या हम हुए; लेकिन बिना धुएँ के आग नहीं जलती। बहूजी के सामने हम लोगों ने कुछ न किया तो समझ लो, जनम भर ठोकर खानी पड़ेगी। फिर ऐसा कौन है, जो हम ग़रीबों का दुःख दरद समझेगा। जो कहो नौकरी चली जायेगी, तो नौकर तो हम सभी हैं। कोई सरकार का नौकर है, कोई रहीस का नौकर है। हमको यहाँ कौल–कसम भी कर लेनी होगी कि जब तक हड़ताल रहे, कोई किसी की जगह पर न जाय, भूखों मर भले ही जाय।’

सुमेर ने मतई को झिड़क दिया–‘तुम जमादार, बात समझते नहीं, बीच में कूद पड़ते हो। तुम्हारी और बात है, हमारी और बात है। हमारा काम सभी करते हैं, तुम्हारा काम और कोई नहीं कर सकता।’

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