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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


मैकू ने सुमेर का समर्थन किया–‘यह तुमने बहुत ठीक कहा सुमेर चौधरी। हमीं को देखो। अब पढ़े–लिखे आदमी धुलाई का काम करने लगे हैं। जगह-जगह कम्पनी खुल गयी है। गाहक के यहाँ पहुँचने में एक दिन की भी देर हो जाती है, तो वह कपड़े कम्पनी में भेज देता है। हमारे हाथ से गाहक निकल जाता है। हड़ताल दस-पाँच दिन चली, तो हमारा रोजगार मिट्टी में मिल जायेगा। अभी पेट को रोटियाँ तो मिल जाती हैं। तब तो रोटियों के लाले पड़ जायेंगे।’

मुरली खटिक ने ललकार कर कहा–‘जब कुछ करने का बूता नहीं तो लड़ने किस बिरते पर चले थे? क्या समझते थे, रो देने से दूध मिल जायेगा? वह जमाना अब नहीं है। अगर अपना और बाल-बच्चों का सुख देखना चाहते हो, तो सब तरह की आफत–बला सिर पर लेनी पड़ेगी। नहीं तो जाकर घर में आराम से बैठो और मक्खियों की तरह मरो।’

ईदू ने धार्मिक गम्भीरता से कहा–‘होगा वह जो मुकद्दर में है। हाय-हाय करने से कुछ होने को नहीं। हाफ़िज हलीम तक़दीर ही से बड़े आदमी हो गये। अल्लाह की रजा होगी, तो मकान बनते देर न लगेगी।’

जंगली ने इसका समर्थन किया–‘बस तुमने लाख रुपये की बात कह दी ईदू मियाँ। हमारा दूध का सौदा ठहरा। एक दिन दूध न पहुँचे या देर हो जाय, तो लोग घुड़कियाँ जामने लगते हैं–हम डेरी से दूध लेंगे, तुम बहुत देर करते हो। हड़ताल दस-पाँच दिन चल गयी, तो हमारा तो दिवाला निकल जायेगा। दूध तो ऐसी चीज़ नहीं कि आज न बिके, कल बिक जाय।’

ईदू बोला–‘वही हाल तो साग–पात का भी है भाई, फिर बरसात के दिन हैं सुबू की चीज़ साम को सड़ जाती है और कोई सेंत भी नहीं पूछता।’

अमीरबेग ने अपनी सारस की–सी गरदन उठाई– ‘बहूजी, मैं तो कोई कायदा–क़ानून नहीं जानता; मगर इतना जानता हूँ, कि बादशाह हैयत के साथ इन्साफ़ ज़रूर करते हैं। रातों को भेस बदलकर रैयत का हालचाल जानने के लिए निकलते हैं, अगर ऐसी अरज़ी तैयार की जाय जिस पर हम सबके दस्तखत हों और वह बादशाह के सामने पेश की जाये; तो उस पर जरूर लिहाज किया जायेगा।’

सुखदा ने जगन्नाथ की ओर आशा-भरी आँखों से देखकर कहा–‘तुम क्या कहते हो जगन्नाथ, इन लोगों ने तो जवाब दे दिया?’

जगन्नाथ ने बगलें झाँकते हुए कहा–‘तो बहूजी, अकेल चना तो भाड़ नहीं फोड़ सकता। अगर सब भाई साथ दें तो मैं तैयार हूँ। हमारी बिरादरी का आधार नौकरी है। कुछ लोग खोंचे लगाते हैं, कोई डोली ढोता है: पर बहुत करके लोग बड़े आदमियों की सेवा–टहल करते हैं। दो-चार दिन बड़े घरों की औरतें भी घर का कामकाज कर लेंगी। हम लोगों का तो सत्यानाश ही हो जायेगा।’

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