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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


नैना का मुख लाल हो गया। वह कुछ जवाब न देकर मुन्ने को पुकारती हुई कमरे से निकल गयी। शान्तिकुमार मूर्तिवत् बैठे रहे। अन्त को वह उठकर सिर झुकाये इस तरह चले, मानो जूते पड़ गये हों। नैना का यह आरक्त मुखण्डल एक दीपक की भाँति उनके अन्तःपट को जैसे जलाये डालता था।

नैना ने सहृदयता से कहा–‘कहाँ चले डॉक्टर साहब, पानी तो निकल जाने दीजिए।’

शान्तिकुमार ने कुछ बोलना चाहा; पर शब्दों की जगह कण्ठ में जैसे नमक का डला पड़ा हुआ था। वह जल्दी से बाहर गया, इस तरह लड़खड़ाते हुए, मानो अब गिरे तब गिरे। आँखों में आँसुओं का सागर उमड़ा हुआ था।

१२

अब भी मूसलाधार वर्षा हो रही थी। संध्या से पहले संध्या हो गयी थी। और सुखदा ठाकुरद्वारे में बैठी हुई ऐसी हड़ताल का प्रबन्ध कर रही थी, जो म्यूनिसिपल बोर्ड और उसके कर्णधारों का सिर हमेश के लिए नीचा कर दे, उन्हें हमेशा के लिए सबक मिल जाय कि जिन्हें वे नीच समझते हैं, उन्हीं की दया और सेवा पर उनके जीवन का आधार है। सारे नगर में एक सनसनी-सी छायी हुई है, मानो किसी शत्रु ने नगर को घेर लिया हो। कहीं धोबियों का जमाव हो रहा है, कहीं चमारों का, कहीं मेहतरों का। नाई-कहारों की पंचायत अलग हो रही है। सुखदा देवी की आज्ञा कौन टाल सकता था? सारे शहर में इतनी जल्द संवाद फैल गया कि यक़ीन न आता था। ऐसे अवसरों पर न जाने कहाँ से दौड़ने वाले निकल आते हैं; जैसे हवा में भी हलचल होने लगती है। महीनों से जनता को आशा हो रही थी कि नये-नये घरों में रहेंगे, साफ़-सुथरे हवादार घरों में, जहाँ धूप होगी, प्रकाश होगा। सभी एक नये जीवन का स्वप्न देख रहे थे। आज नगर के अधिकारियों ने उनकी सारी आशाएँ धूल में मिला दीं।

नगर की जनता अब उस दशा में न थी कि उस पर कितना ही अन्याय हो और वह चुपचाप सहती जाये। उसे अपने स्वत्व का ज्ञान हो चुका था, उन्हें मालूम हो गया था कि उन्हें भी आराम से रहने का उतना ही अधिकार है जितना धनियों को। एक बार संगठित आग्रह की सफलता देख चुके थे। अधिकारियों की यह निरंकुशता, यह स्वार्थपरता उन्हें असह्य हो गयी। और यह कोई सिद्धान्त की राजनौतिक लड़ाई न थी, जिसका प्रत्यक्ष स्वरूप जनता की समझ में मुश्किल से आता है। इस आन्दोलन का तत्काल फल उनके सामने था। भावना या कल्पना पर ज़ोर देने की ज़रूरत न थी।
शाम होते-होते ठाकुरद्वार में अच्छा-खासा बाज़ार लग गया।

धोबियों का जौथरी मैकू अपनी बकरे-सी दाढ़ी हिलाता हुआ बोला, नशे में आँखें लाल थीं–कपड़े बना रहा था कि ख़बर मिली। भागा आ रहा हूँ। घर में कहीं कपड़े रखने की जगह नहीं है। गीले कपड़े कहाँ सूखें?

इस पर जगन्नाथ महरा ने डाँटा–‘झूठ न बोलो मैकू, तुम कपड़े बना रहे थे अभी? सीधे ताड़ीखाने से चले आ रहे हो। कितना समझाया गया; पर तुमने अपनी टेव न छोड़ी।’

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