उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सुखदा उत्तेजित होकर बोली–‘जी नहीं, मैं इतनी सहनशील नहीं हूँ। लाला धनीराम और उनके सहयोगियों को मैं चैन की नींद न सोने दूँगी। इतने दिनों सबकी ख़ुशामद करके देख लिया। अब अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना पड़ेगा। फिर दस-बीस प्राणी की आहुति देनी पड़ेगी, तब लोगों की आँखें खुलेंगी। मैं इन लोगों का शहर में रहना मुश्किल कर दूँगी।
शान्तिकुमार लाला धनीराम से जले हुए थे। बोले– ‘यह उन्हीं सेठ धनीराम के हथकण्डे हैं।’
सुखदा ने द्वेष-भाव से कहा–‘किसी राम के हथकण्डे हों, मुझे इसकी परवाह नहीं। जब बोर्ड ने एक निश्चय किया तो उसकी ज़िम्मेदारी एक आदमी के सिर नहीं, सारे बोर्ड पर है। मैं इन महल–निवासियों को दिखा दूँगी कि जनता के हाथों में भी कुछ बल है। लाला धनीराम ज़मीन के उन टुकड़ों पर अपने पाँव न जमा सकेंगे।’
शान्तिकुमार ने कातर भाव से कहा–‘मेरे ख़याल में तो इस वक़्त प्रोपेगेंडा करना ही काफ़ी है। अभी मामला तूल हो जायेगा।’
ट्रस्ट बन जाने के बाद से शान्तिकुमार किसी ज़ोखिम के काम में आगे क़दम उठाते हुए घबड़ाते थे। अब उनके ऊपर एक संस्था का भार था और अन्य साधकों की भाँति वह भी साधना को ही सिद्धि समझने लगे थे। अब उन्हें बात-बात में बदनामी और अपनी संस्था ने नष्ट हो जाने की शंका होती थी।
सुखदा ने उन्हें फटकार बतायी–‘आप क्या बातें कर रहे हैं डॉक्टर साहब! मैंने इन पढ़े–लिखे स्वार्थियों को ख़ूब देख लिया। मुझे अब मालूम हो गया कि यह लोग केवल बातों के शेर हैं। मैं उन्हें दिखा दूँगी कि जिन ग़रीबों को तुम अब तक कुचलते आये हो, वही अब साँप बनकर तुम्हारे पैरों से लिपट जायेंगे। अब तक यह लोग उनसे रियासत चाहते थे, अब अपना हक़ माँगेंगे। रिआयत न करने का उन्हें अख़्तियार है, पर हमारे हक़ से हमें कौन वंचित रख सकता है। रिआयत के लिए कोई जान नहीं देता; पर हक़ के लिए जान देना सब जानते हैं। मैं भी देखूँगी, लाला धनीराम और उनके पिट्ठू कितने पानी में हैं।’
यह कहती हुई सुखदा बरसते पानी में कमरे से निकल आयी।
एक मिनट के बाद शान्तिकुमार ने नैना से पूछा– ‘कहाँ चली गयीं? बहुत जल्द गरम हो जाती हैं।’
नैना ने इधर-उधर देखकर कहार से पूछा, तो मालूम हुआ सुखदा बाहर चली गयी। उसने आकर शान्तिकुमार से कहा।
शान्तिकुमार ने विस्मित होकर कहा–इस पानी में कहाँ गयी होगी? मैं डरता हूँ कहीं हड़ताल-वड़ताल न करवाने लगे। तुम तो वहाँ जाकर भूल गयी नैना, एक पत्र भी न लिखा।’
एकाएक उन्हें ऐसा जान पड़ा कि उनके मुँह से एक अनुचित बात निकल गयी है। उन्हें नैना से यह प्रश्न नहीं पूछना चाहिए था। इसका वह जाने मन में क्या आशय समझे? उन्हें यह मालूम हुआ, जैसे कोई उनका गला दबाये हुए है। वह वहाँ से भाग जाने के लिए रास्ता खोजने लगे। वह अब यहाँ एक क्षण भी नहीं बैठ सकते। उनके दिल में हलचल होने लगी, कहीं नैना अप्रसन्न होकर कुछ कह न बैठे! ऐसी मूर्खता उन्होंने कैसे कर डाली! अब तो उनकी इज़्ज़त ईश्वर के हाथ है!
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