उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
आप बोले–‘उफ़्फ़ोह इस रूप पर इतना अभिमान!’
मेरी देह में आग लग गयी। कोई जवाब न दिया। ऐसे आदमी से बोलना भी मुझे अपमानजनक मालूम हुआ। मैंने अन्दर आकर किवाड़ बन्द कर लिए, और उस दिन से फिर न बोली। मैं तो ईश्वर से यही मनाती हूँ कि वह अपना विवाह कर लें और मुझे छोड़ दें। जो स्त्री में केवल रूप देखना चाहता है, जो केवल हाव-भाव और दिखावे का ग़ुलाम है, जिसके लिए स्त्री केवल स्वार्थसिद्धि का साधन है, उसे मैं अपना स्वामी नहीं स्वीकार कर सकती।
सुखदा ने विनोद-भाव से पूछा–‘लेकिन तुमने ही अपने प्रेम को कौन–सा परिचय दिया। क्या विवाह के नाम में ही इतनी बरकत है कि पतिदेव आते-ही-आते तुम्हारे चरणों पर सिर रख देते?’
नैना गम्भीर होकर बोली–‘हाँ, मैं तो समझती हूँ, विवाह के नाम में ही बरकत है। जो विवाह को धर्म का बन्धन नहीं समझता है, इसे केवल वासना की तृप्ति का साधन समझता है, वह पशु है।’
सहसा शान्तिकुमार पानी में लथपथ आकर खड़े हो गये।
सुखदा ने पूछा–‘भाग कहाँ गये, क्या छतरी न थी?’
शान्तिकुमार ने बरसाती उतारकर अलगनी पर रख दी और बोले–‘आज बोर्ड का जलसा था। लौटते वक़्त कोई सवारी न मिली।’
‘क्या हुआ बोर्ड में? हमारा प्रस्ताव पेश हुआ!’
‘वही हुआ, जिसका भय था?’
‘कितने वोटे से हारे?’
‘सिर्फ़ पाँच वोटों से। इन्हीं पाँचों ने दग़ा दी। लाला धनीराम ने कोई बात उठा नहीं रखी।’
सुखदा ने हतोत्साह होकर कहा–‘तो फिर अब?’
‘अब तो समाचार–पत्रों और व्याख्यानों से आन्दोलन करना होगा।’
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