लोगों की राय

उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

31 पाठक हैं

प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सुखदा ने अनिच्छा से कहा–‘तुम मेरी तरफ़ से भी एक नाव छोड़ दो। जीत जाना, तो रुपये ले लेना; पर उसकी मिठाई नहीं आयेगी, बताये देती हूँ।’

‘तो क्या दवाएँ आयेंगी?’

‘वाह, उससे अच्छी और क्या बात होगी? शहर में हज़ारों आदमी ख़ासी और ज़्वर में पड़े हुए हैं। उनका कुछ उपकार हो जायेगा।’

सहना मुन्ने ने आकर दोनों नावें छीन लीं और उन्हें पानी में डालकर तालियाँ बजाने लगा। नैना ने बालक का चुम्बन लेकर कहा–‘वहाँ दो-चार बार रोज़ याद करके रोती थी। न–जाने क्यों बार-बार इसी की याद आती थी?’

‘अच्छा, मेरी याद भी कभी आती थी?’

‘कभी नहीं। हाँ, भैया की याद बार-बार आती थी, और वह इतने निष्ठुर हैं कि छः महीने में एक पत्र भी न भेजा। मैंने भी ठान लिया कि जब तक उनका पत्र न आयेगा, एक ख़त भी न लिखूँगी।’

‘तो क्या सचमुच तुम्हें मेरी याद न आती थी? और मैं समझ रही थी कि तुम मेरे लिए विकल हो रही होगी। आख़िर अपने भाई की बहन ही तो हो। आँख की ओट होते ही ग़ायब।’

‘मुझे तो तुम्हारे पर ऊपर क्रोध आता था। इन छः महीनों में केवल तीन बार गयी और फिर भी मुन्ने को न ले गयी।’

‘यह जाता, तो आने का नाम न लेता।’

‘तो क्या मैं इसकी दुश्मन थी?’

‘उन लोगों पर मेरा विश्वास नहीं है, मैं क्या करूँ। मेरी तो यही समझ में नहीं आता कि तुम वहाँ कैसे रहती थीं।’

‘तो क्या करती, भाग आती? तब भी ज़माना मुझी को हँसता।’

‘अच्छा सच बताना, पतिदेव तुमसे प्रेम करते हैं?’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book