उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
धनीराम ने लम्बी साँस खींचकर कहा–‘अच्छा तो हूँगा बेटा, मैं किसी साधु की चुटकी भर राख ही से। हाँ, वह तमाशा चाहे कर लो, और यह तमाशा बुरा नहीं रहा। थोड़े से रुपये ऐसे तमाशों में खर्च कर देने का मैं विरोध नहीं करता; लेकिन इस वक़्त के लिए इतना बहुत है। कल डॉक्टर साहब से कह दूँगा, मुझे बहुत फ़ायदा है, आप तशरीफ़ ले जायें।’
मनीराम ने डरते-डरते पूछा–‘कहिए, तो मैं सुखदा देवी के पास जाऊँ?’
धनीराम ने गर्व से कहा–‘नहीं, मैं तुम्हारा अपमान करना नहीं चाहता। ज़रा मुझे देखता है कि उसकी आत्मा कितनी उदार है। मैंने कितनी ही बाक हानियाँ उठायीं, पर किसी के सामने नीचा नहीं बना। समरकान्त को मैंने देखा। वह लाख बुरा हो, पर दिल का साफ़ है, दया और धर्म को कभी नहीं छोड़ता। अब उनकी बहू की परीक्षा लेनी है।’
यह कहकर उन्होंने लकड़ी उठाई और धीरे-धीरे अपने कमरे की तरफ़ चले। मनीराम उन्हें दोनों हाथें से सँभाले हुए था।
११
सावन में नैना मैके आयी। ससुराल चार क़दम पर थी, छः महीने से पहले आने का अवसर न मिला। मनीराम का बस होता, तो अब भी न आने देता; लेकिन सारा घर नैना की तरफ़ था। सावन में सभी बहुएँ मैके जाती हैं। नैना पर इतना बड़ा अत्याचार नहीं किया जा सकता।
सावन की झड़ी लगी हुई थी। कहीं कोई मकान गिरता था, कहीं कोई छत बैठती थी। सुखदा बरामदे में बैठी हुई आँगन में उठते हुए बुलबुलों की सैर कर रही थी। आँगन कुछ गहरा था, पानी रुक जाया करता था। बुलबुलों की बतासों की तरह उठकर कुछ दूर बुलबुल चलना और ग़ायब हो जाना,उसके लिए मनोरंजन तमाशा बना हुआ था। कभी-कभी दो बुलबुल आमने-सामने आ जाते और जैसे हम कभी-कभी किसी के सामने आ जाने पर कतराकर निकल जाना चाहते हैं; पर जिस तरफ़ हम मुड़ते हैं, उसी तरफ़ वह भी मुड़ता है और एक सेकेण्ड तक यही दाँव-घात होता रहता है, यही तमाशा यहाँ भी हो रहा था। सुखदा को ऐसा आभास हुआ, मानो यह जानदार है, मानो नन्हें-नन्हें बालक गोल टोपियाँ लगाये जल-क्रीड़ा कर रहे हैं।
इस वक़्त नैना ने पुकारा–‘भाभी, आओ, नाव-नाव खेलें। मैं नाव बना रही हूँ।’
सुखदा ने बुलबुलों की ओर ताकते हुए जवाब दिया– ‘तुम खेलो, मेरा जी नहीं चाहता।’
नैना ने न माना। दो नावें लिए आकर सुखदा को उठाने लगी–‘जिसकी नाव किनारे तक पहुँच जाये उसकी जीत। पाँच-पाँच रुपये की बाज़ी।’
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