उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सुखदा को इस इक्कीस वर्ष वाले युवक की इस निस्संकोच सांसारिकता पर घृणा हो रही थी। उसकी स्वार्थ-सेवा ने जैसे उसकी सारी कोमल भावनाओं को कुचल डाला था, यहाँ तक कि वह हास्यास्पद हो गया था।
‘इस काम के लिए तो आपको थोड़े–से वेतन में किरानियों की स्त्रियाँ मिल जायेंगी, जो लेडियों के साथ साहबों का भी सत्कार करेंगी।
‘आप इन व्यापार-सम्बन्धी समस्याओं को नहीं समझ सकतीं। बड़े-बड़े मिलों के एजेण्ट आतें हैं। अगर मेरी स्त्री उनसे बातचीत कर सकती, तो कुछ-न-कुछ कमीशन रेट बढ़ जाता। यह काम तो कुछ औरत ही कर सकती हैं।
‘मैं तो कभी न करूँ। चाहे सारा कारोबार जहन्नुम में मिल जाये।’
‘विवाह का अर्थ जहाँ तक मैं समझा हूँ, वह यही है कि स्त्री-पुरुष की सहगामिनी हैं। अंगेजों के यहाँ बराबर स्त्रियाँ सहयोग देती हैं।
‘आप सहगामिनी का अर्थ नहीं समझे।
मनीराम मुँहफट था। उसके मुसाहिब इसे साफ़गोई कहते थे। उसका विनोद भी गाली से शुरू होता था और गाली थी ही। बोला–कम-से-कम आपको इस विषय में मुझे उपदेश करने का अधिकार नहीं है। आपने इस शब्द का अर्थ समझा होता, तो इस वक़्त आप अपने पति से अलग न होतीं और न वह गली–कूचों की हवा खाते होते।’
सुखदा का मुखमण्डल लज्जा और क्रोध से आरक्त हो उठा। उसने कुरसी से उठकर कठोर स्वर में कहा– ‘मेरे विषय में आपको टीका करने का कोई अधिकार नहीं है, लाला मनीराम। ज़रा भी अधिकार नहीं है। आप अंग्रेजी सभ्यता के बड़े भक्त बनते हैं। क्या आप समझते हैं कि कि अंग्रेजी पहनवा और सिगार ही उस सभ्यता के मुख्य अंग हैं? उसका प्रधान अंग है, महिलाओं को आदर और सम्मान। वह अभी आपको सीखना बाक़ी है। कोई कुलीन स्त्री इस तरह आत्मसम्मान खोना स्वीकार न करेगी।’
उसका गर्जन सुनकर सारा घर थर्रा उठा और मनीराम की तो जैसे ज़बान बन्द हो गयी। नैना अपने कमरे में बैठी हुई भावज का इन्तज़ार कर रही थी, उसकी गरज सुनकर समझ गयी, कोई-न-कोई बात हो गयी। दौड़ी हुई आकर बड़े कमरे के द्वार पर खड़ी हो गयी।
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