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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘मैं तुम्हारी राह देख रही थी भाभी, तुम यहाँ कैसे बैठ गयीं?’

सुखदा ने उसकी ओर ध्यान न देकर उसी रोष में कहा–‘धन कमाना अच्छी बात है; पर इज़्ज़त बेचकर नहीं। और विवाह का उद्देश्य वह नहीं है जो आप समझे हैं। मुझे आज मालूम हुआ कि स्वार्थ में पड़कर आदमी का कहाँ तक पतन हो सकता है।’

नैना ने आकर उसका हाथ पकड़ लिया और उसे उठाती हुई बोली–‘अरे, तो यहाँ से उठोगी भी।’

सुखदा और उत्तेजित होकर बोली–‘मैं क्यों अपने स्वामी के साथ नहीं गयी? इसलिए कि वह जितने त्यागी हैं, मैं उतना त्याग नहीं कर सकती थी! आपको अपना व्यवसाय और धन अपनी पत्नी के आत्मसम्मान से प्यारा है। उन्होंने दोनों ही को लात मार दी। आपने गली-कूचों की जो बात कही, इसका अगर वही अर्थ है, जो मैं समझती हूँ, तो वह मिथ्या कलंक है। आप अपने रुपये कमाते जाइए; आपका उस महान् आत्मा पर छीटें उड़ाना छोटे मुँह बड़ी बात है।’

सुखदा लोहार की एक को सोनार की सौ से बराबर करने की असफल चेष्टा कर रही थी। वह एक वाक्य उसके हृदय में जितना चुभा, वैसा पैना कोई वाक्य वह न निकाल सकी।

नैना के मुँह से निकला–‘भाभी, तुम किसके मुँह लग रही हो।’

मनीराम क्रोध से मुट्ठी बाँधकर बोला–‘मैं अपने ही घर में अपना यह अपमान नहीं सह सकता।’

नैना ने भावज के सामने हाथ जोड़कर कहा–‘भाभी, मुझ पर दया करो। ईश्वर के लिए यहाँ से चलो।’

सुखदा ने पूछा–‘कहाँ हैं सेठजी, ज़रा मुझे उनसे दो-दो बातें करनी हैं।’

मनीराम ने कहा–‘आप इस वक़्त उनसे नहीं मिल सकतीं। उनकी तबीयत अच्छी नहीं है, और ऐसी बातें सुनना वह पसन्द न करेंगे।’

‘अच्छी बात है, न जाऊँगी। नैना देवी, कुछ मालूम है तुम्हें तुम्हारी एक अंग्रेजी सौत आने वाली है; बहुत जल्द।’

‘अच्छा ही है, घर में आदमियों का आना किसे बुरा लगता है? एक-दो जितनी चाहें, आवें, मेरा क्या बिगड़ता है।’

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