उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
वह कमरे से बाहर निकली तो सकीना रो रही थी, न जाने क्यों?
१०
सुखदा सेठ धनीराम के घर पहुँची, तो नौ बज रहे थे। बड़ी विशाल, आसमान से बातें करने वाला भवन था, जिसके द्वार पर एक बिजली की बत्ती जल रही थी और दो दरबान खड़े थे। सुखदा को देखते ही भीतर–बाहर हलचल मच गयी। लाला धनीराम घर में से निकल आये और उसे अन्दर ले गये। दूसरी मंजिल पर सज़ा हुआ मुलाक़ाती कमरा था। सुखदा वहाँ बैठायी गयी। घर की स्त्रियाँ इधर-उधर परदों से उसे झाँक रही थीं, कमरे में आने का साहस न कर सकती थीं।
सुखदा ने एक कोच पर बैठकर पूछा–‘सब कुशल–मंगल है?’
मनीराम ने एक सिगार सुलगाकर धुआँ उड़ाते हुए कहा–‘आपने शायद पेपर नहीं देखा। पापा को दो दिन से ज्वर आ रहा है। मैंने तो कलकत्ता से मि. लैंसट को बुला लिया है। यहाँ किसी पर मुझे विश्वास नहीं। मैंने पेपर में तो दे दिया था। बूढ़े हुए, कहता हूँ आप शान्त होकर बैठिए, और वह चाहते भी हैं; पर यहाँ जब कोई बैठने भी दे। गवर्नर प्रयाग आये थे। उनके यहाँ से खास उनके प्राइवेट सेक्रेटरी का निमन्त्रण आ पहुँचा। जाना लाज़िम हो गया। इस शहर में और किसी के नाम निमंत्रण नहीं आया। इतने बड़े सम्मान को कैसे ठुकरा दिया जाता? वहीं सरदी खा गये। सम्मान ही तो आदमी की ज़िन्दगी में एक चीज़ है, यों तो अपना-अपना पेट सभी पालते हैं। अब यह समझिए कि सुबह से शाम तक शहर के रईसों का ताँता लगा रहता है। सवेरे डिप्टी कमिश्नर और उनकी मेम साहब आयी थीं! कमिश्नर ने भी हमदर्दी का तार भेजा है। दो-चार दिन की बीमारी कोई बात नहीं, यह सम्मान तो प्राप्त हुआ। सारा दिन अफ़सरों की ख़ातिरदारी में कट रहा है।’
नौकर पान-इलायची की तश्तरी रख गया। मनीराम ने सुखदा के सामने तश्तरी रख दी। फिर बोले–‘मेरे घर में ऐसी औरत की ज़रूरत थी, जो सोसाइटी आचार–व्यवहार जानती हो और लेडियों का स्वागत–सत्कार कर सके। इस शादी से तो वह बात पूरी हुई नहीं। मुझे मजबूर होकर दूसरा विवाह करना पड़ेगा। पुराने विचार की स्त्रियों की तो हमारे यहाँ यों भी कमी न थी; पर वह लेडियों की सेवा सत्कार तो नहीं कर सकतीं। लेडियों के सामने तो उन्हें ला ही नहीं सकते। ऐसी फूहड़, गँवार औरतों को उनके सामने लाकर अपना अपमान कौन कराये?’
सुखदा ने मुस्कुराकर कहा–‘तो किसी लेडी से आपने क्यों न विवाह क्या?’
मनीराम निस्संकोच भाव से बोला–‘धोखा हुआ और क्या? हम लोग को क्या मालूम था कि ऐसे शिक्षित परिवार में लड़कियाँ ऐसी फूहड़ होंगी? अम्माँ, बहनें और आसपास की स्त्रियाँ तो नयी बहू से बहुत सन्तुष्ट हैं। वह व्रत रखती हैं; पूजा करती हैं, सिन्दूर का टीका लगाती हैं; लेकिन मुझे तो संसार में कुछ काम, कुछ नाम करना है। मुझे पूजा पाठ वाली औरतों की क्या ज़रूरत नहीं; पर अब तो विवाह हो ही गया, तो वह टूट नहीं सकता। मज़बूर होकर दूसरा विवाह करना पड़ेगा। अब यहाँ दो-चार लेडियाँ रोज़ ही आया चाहें, उनका सत्कार न किया जाये, तो काम नहीं चलता। सब समझती होंगी, यह लोग कितने मूर्ख हैं।’
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