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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


वह लपककर घर में गयी और एक इत्र से बसा हुआ लिफ़ाफा लाकर सुखदा के हाथ पर रखती हुई बोली– ‘यह मियाँ मुहम्मद सलीम का ख़त है। आप पढ़ सकती हैं। कोई ऐसी बात नहीं है; वह भी मुझ पर आशिक हो गये हैं; पहले अपने ख़िदमतगार के साथ मेरा निकाह करा देना चाहते थे। अब ख़ुद निकाह करना चाहते हैं। पहले चाहे जो कुछ रहे हों; पर अब उनमें छिछोरापन नहीं है। उनकी मामा उनका हाल बयान करती है। मेरी निस्बह भी उन्हें जो कुछ मालूम हुआ होगा, मामा से ही मालूम हुआ होगा। मैंने उन्हें दो-चार बार उनके दरवाज़े पर भी ताकते-झाँकते देखा है। सुनती हूँ, किसी ऊँचे ओहदे पर आ गये हैं। मेरी तो जैसे तक़दीर ख़ुल गयी; लेकिन मुहब्बत कि जिस नाजुक जंज़ीर में बँधी हुई हूँ, उसे बड़ी-से-बड़ी ताक़त भी नहीं तोड़ सकती। अब तो जब तक मुझे मालूम न हो जायेगा की बाबूजी ने मुझे दिल से निकाल दिया, तब तक उन्हीं की हूँ, और उनके दिल से निकाली जाने पर भी इस मुहब्बत को हमेशा याद रखूँगी। ऐसी पाक मुहब्बत पर लम्हा इंसान को उम्रभर मतवाला रखने के लिए काफ़ी है। मैंने इसी मज़मून का जवाब लिख दिया है। कल ही तो उनके जाने की तारीख़ है। मेरा ख़त पढ़कर रोने लगे। अब यह ठान ली है कि या तो मुझसे शादी करेंगे या बिन–ब्याहे रहेंगे। उसी ज़िले में तो बाबूजी भी हैं। दोनों दोस्तों में वहीं फ़ैसला होगा। इसीलिए इतनी जल्द भागे जा रहे हैं।’

बुढ़िया एक पत्ते की गिलौरी में पान लेकर आ गयी। सुखदा ने निष्क्रिय भाव से पान लेकर खा लिया और फिर विचारों में डूब गयी। इसी दरिद्र ने उसे आज पूर्ण रूप से परास्त कर दिया था। आज वह अपनी विशाल सम्पत्ति और महती कुलीनता के साथ उसके सामने भिखारिन–सी बैठी हुई थी। आज उसका मन अपना अपराध स्वीकार करता हुआ जान पड़ा। अब तक उसने तर्क से मन को समझाया था कि पुरुष छिछोरे और हरजाई होते ही हैं, इस युवती के हाव-भाव हास-विलास ने उन्हें मुग्ध कर लिया। आज उसे ज्ञात हुआ कि यहाँ न हाव-भाव है, न हास-विलास है, न वह जादू-भरी चितवन है। यह तो एक शान्त, करुण संगीत है, जिसका रस वही ले सकते हैं, जिनके पास हृदय है। लंपटों और विलासियों को जिस प्रकार चटपटे, उत्तेजक खाने में आनन्द आता है, वह यहाँ नहीं है। उस उदारता के साथ, जो द्वेष की आग से निकलकर खरी हो गयी थी, उसने सकीना की गरदन में बाँहे डाल दीं और बोली–‘बहन, आज तुम्हारी बातों ने मेरे दिल का बोझ हलका कर दिया। संभव है, तुमने मेरे ऊपर जो इलज़ाम लगाया है, वह ठीक हो। तुम्हारी तरफ़ से आज मेरा दिल साफ़ हो गया। मेरा यही कहना है कि बाबूजी को अगर मुझसे शिकायत हुई थी, तो उन्हें मुझसे कहना चाहिए था। मैं भी ईश्वर से कहती हूँ कि अपनी जान में मैंने उन्हें कभी असन्तुष्ट नहीं किया। हाँ, अब मुझे कुछ ऐसी बातें याद आ रही हैं, जिन्हें उन्होंने मेरी निठुरता समझी होगी; पर उन्होंने मेरा जो अपमान किया, उसे मैं अब भी क्षमा नहीं कर सकती। अगर उन्हें प्रेम की भूख थी, तो मुझे प्रेम की भूख कुछ कम न थी। मुझसे वह जो चाहते थे, वही मैं उनसे चाहती थी। जो चीज़ वह मुझे न दे सके, वह मुझसे न पाकर वह क्यों उदण्ड हो गये? क्या इसीलिए कि वह पुरुष हैं, और पुरुष चाहे स्त्री को पाँव की जूती समझे, पर स्त्री का धर्म है कि वह उनके पाँव से लिपटी रहे। बहन, जिस तरह तुमने मुझसे कोई परदा नहीं रखा, उसी तरह मैं भी तुमसे निष्कपट बातें कर रही हूँ। मेरी जगह पर एक क्षण के लिए अपने को रख लो, तब तुम मेरे भावों को पहचान सकोगी। अगर मेरी ख़ता है तो उतनी ही उनकी भी ख़ता है। जिस तरह मैं अपनी तक़दीर को ठोककर बैठ गयी थी, क्या वह भी न बैठ सकते थे? तब शायद सफाई हो जाती, लेकिन अब तो जब तक उनकी तरफ़ से हाथ न बढ़ाया जायेगा, मैं अपना हाथ नहीं बढ़ा सकती, चाहे सारी ज़िन्दगी इसी दशा में पड़ी रहूँ। औरत निर्बल है और इसीलिए उसे मान-सम्मान का दुःख भी ज़्यादा होता है। अब मुझे आज्ञा दो बहन, ज़रा नैना से मिलना है। मैं तुम्हारे लिए सवारी भेजूँगी, कृपा करके कभी-कभी हमारे यहाँ आ जाया करो।’

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