लोगों की राय

उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

31 पाठक हैं

प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सलीम ने आँखें चुराकर कहा–‘अब्बाजान इस मुआमले में मेरी एक न सुनेंगे। और हक़ यह है कि जो मुआमला तय हो चुका है, उसके बारे में कुछ ज़ोर देना भी तो मुनासिब नहीं।’

यह कहते हुए उसने सुखदा और शान्तिकुमार से हाथ मिलाया और दोनों से कल शाम के जलसे में आने का आग्रह करके चला गया। वहाँ बैठने में अब उसकी ख़ैरियत न थी।

शान्तिकुमार ने कहा–‘देखा आपने! अभी जगह पर गये नहीं; पर मिज़ाज में अफ़सरी की बू आ गयी। कुछ अजब तिलिस्म है कि जो उसमें क़दम रखता है, उस पर जैसे नशा हो जाता है। इस तजवीज़ के यह पक्के समर्थक थे; पर आज कैसे निकल गये। हाफ़िज़जी से अगर ज़ोर देकर कहें तो मुमकिन नहीं कि वह राज़ी न हो जायँ।’

सुखदा के मुख पर आत्मगौरव की झलक आ गयी– ‘हमें न्याय की लड़ाई लड़नी है। न्याय हमारी मदद करेगा। हम और किसी की मदद के मुहताज़ नहीं हैं।’

इसी समय लाला समरकान्त आ गये। शान्तिकुमार को बैठे देखकर ज़रा झिझके। फिर पूछा–‘कहिए डॉक्टर साहब, हाफ़िज़जी से क्या बातचीत हुई?’

शान्तिकुमार ने अब तक जो कुछ किया था, वह सब कह सुनाया।

समरकान्त ने असन्तोष का भाव प्रकट करते हुए कहा–‘आप लोग विलायत के पढ़े हुए साहब, मैं भला आपके सामने क्या मुँह खोल सकता हूँ, लेकिन आप जो चाहें कि न्याय और सत्य के नाम पर आपको ज़मीन मिल जाय, तो चुपके हो रहिए। इस काम के लिए दस-बीस हज़ार रुपये खर्च करने पड़ेंगे–हरेक मेम्बर से अलग-अलग मिलिए। देखिए किस मिज़ाज का, किस विचार का, किस रंग-ढंग का आदमी है। उसी तरह उसे काब़ू में लाइए–खुशामद से राज़ी हो खुशामद से, चाँदी से राज़ी हो चाँदी से, दुआ–ताबीज, जन्तर-मन्तर जिस तरह से काम निकालिए। हाफ़िज़जी से मेरी पुरानी मुलाक़ात है। पच्चीस हज़ार की थैली उनके मामा के घर में भेज दो, फिर देखें कैसे ज़मीन नहीं मिलती। सरदार कल्याणसिंह को नये मकानों का ठीका देने का वादा कर लो, वह क़ाबू में आ जायेंगे। दुबेजी को पाँच चन्द्रोदय भेंट करके पटा सकते हो। खन्ना से योगाभ्यास की बातें करो और किसी सन्त से मिला दो; ऐसा सन्त हो, जो उन्हें दो-चार आसन सिखा दे। राय साहब धनीराम के नाम पर अपने नये मुहल्ले का नाम रख दो। उनसे से कुछ रुपये भी मिल जायेंगे। यह है काम करने के ढंग। रुपये की तरफ़ से निश्चिन्त रहो। बनियों को चाहे बदनाम कर लो; पर परमार्थ के काम में बनिये ही आगे आते हैं। दस लाख तक का बीमा तो मैं लेता हूँ। कई भाइयों के तो वोट ले आया। मुझे तो रात को नींद नहीं आती। यही सोचा करता है कैसे यह सिद्ध हो? जब तक काम सिद्ध न हो जायेगा, मुझे ज्वर–सा चढ़ा रहेगा।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book