उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
शान्तिकुमार ने दबी आवाज़ से कहा–‘यह फ़न तो मुझे अभी सीखना पड़ेगा सेठजी। मुझे न रक़म खाने का तजरबा है, न खिलाने का। मुझे तो किसी भले आदमी से यह प्रस्ताव करते शर्म आती है। यह ख़याल भी आता है कि वह मुझे कितना ख़ुदग़र्ज़ समझ रहा होगा। डरता हूँ, कहीं घुड़क न बैठे।’
समरकान्त ने जैसे कुत्ते को दुत्कार कर कहा–‘तो फिर तुम्हें ज़मीन मिल चुकी। सेवाश्रम के लड़के पढ़ाना दूसरी बात है, मामले पटाना दूसरी बात है। मैं ख़ुद पटाऊँगा।’
सुखदा ने जैसे आहत होकर कहा–‘नहीं, हमें रिश्वत देना मंजूर नहीं। हम न्याय के लिए खड़े हैं, हमारे पास न्याय का बल है। हम उसी बल से विजय पायेंगे।’
समरकान्त ने निराश होकर कहा–‘तो तुम्हारी स्कीम चल चुकी।’
सुखदा ने कहा–‘स्कीम तो चलेगी; हाँ शायद देर में चले, या धीमी चाल से चले, पर रुक नहीं सकती। अन्याय के दिन पूरे हो गये।’
‘अच्छी बात है। मैं भी देखूँगा।’
समरकान्त झल्लाये हुए बाहर चले गये। उनकी सर्वज्ञता को जो स्वीकार न करे, उससे वह दूर भागते थे।
शान्तिकुमार ने ख़ुश होकर कहा–‘सेठजी भी विचित्र जीव हैं! इनकी निगाह में जो कुछ है, वह रुपया। मानवता भी कोई वस्तु है, इसे शायद यह मानें ही नहीं।’
सुखदा की आँखें सगर्व हो गयीं–इनकी बातों पर न जाइए डाक्टर साहब। इनके हृदय में जितनी दया, जितनी सेवा है, वह हम दोनों में मिलाकर भी न होगी। इनके स्वभाव में कितना अन्तर हो गया है, इसे आप नहीं देखते? डेढ़–साल पहले बेटे ने इनसे यह प्रस्ताव किया होता, तो आग हो जाते। अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार हो जाना साधारण बात नहीं है, और विशेषकर उस आदमी के लिए, जिसने एक-एक कौड़ी को दाँतों से पकड़ा हो। पुत्र–स्नेह ही ने यह कायापलट की है। मैं इसी को सच्चा वैराग्य कहती हूँ। आप पहले मेम्बरों से मिलिए और ज़रूरत समझिए तो मुझे भी ले लीजिए। मुझे तो आशा है, हमें बहुतमत मिलेगा। नहीं, आप अकेले न जायँ। कल सवेरे आइये तो हम दोनों चलें। दस बजे रात तक लौट आयेंगे, इस वक़्त मुझे ज़रा सकीना से मिलना है। सुना है, महीनों से बीमार है। मुझे तो उस पर श्रद्धा सी हो गयी है। समय मिला, तो उधर से ही नैना से मिलती आऊँगी।’
डॉक्टर साहब ने कुरसी से उठते हुए कहा–‘उसे गये तो दो महीने हो गये, आयेगी कब तक?’
|