उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘आसान तो नहीं समझता; लेकिन उपाय क्या है? शहर के बाहर तो कोई रहेगा नहीं। इसलिए शहर के अन्दर ही ज़मीन निकालनी पड़ेगी। बाज़ मकान इतने लम्बे-चौड़े हैं कि उनमें एक हज़ार आदमी फैलकर रह सकते हैं। आप ही का मकान क्या छोटा है? इसमें दस ग़रीब परिवार बड़े मज़े में रह सकते हैं।’
सुखदा मुसकाई–‘आप तो हम लोगों पर ही हाथ साफ़ करना चाहते हैं!’
‘जो राह बताये उसे आगे चलना पड़ेगा।’
‘मैं तैयार हूँ; लेकिन म्युनिसिपैलिटी के पास कुछ प्लाट तो खाली होंगे?’
‘हाँ, हैं क्यों नहीं। मैंने उन सबों का पता लगा लिया है; मगर हाफ़िज जी फ़रमाते हैं, उन प्लाटों की बातचीत तय हो चुकी है।’
सलीम ने मोटर से उतरकर शान्तिकुमार को पुकारा। उन्होंने उसे अन्दर बुला लिया और पूछा–‘किधर से आ रहे हो?’
सलीम ने प्रसन्न मुख से कहा–‘कल रात को चला जाऊँगा। सोचा, आपसे रुख़सत होता चलूँ। इसी बहाने देवीजी से भी नियाज़ हासिल़ हो गया।’
शान्तिकुमार ने पूछा–‘अरे तो यों ही चले जाओगे भाई? कोई जलसा, दावत कुछ नहीं? वाह!’
‘जलसा तो कल शाम को है। कार्ड तो आपके यहाँ भेज दिया था। मगर आपसे तो जलसे की मुलाक़ात काफ़ी नहीं।’
‘तो चलते-चलते हमारी थोड़ी–सी मदद करो। दक्खिन तरफ़ म्युनिसिपैलिटी के जो प्लाट हैं, वह हमें दिला दो मुफ़्त में!’
सलीम का मुख गंभीर हो गया। बोला–‘उन प्याटों की तो शायद बातचीत हो चुकी थी।। कई मेम्बर ख़ुद बेटों और बीवियों के नाम ख़रीदने को मुँह खोले बैठे हैं।’
सुखदा विस्मित हो गयी–‘अच्छा! भीतर-ही-भीतर यह कपट लीला भी होती है। तब तो आपकी मदद की और ज़रूरत है। इस मायाजाल तो तोड़ना अपना कर्त्तव्य है।’
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