उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
31 पाठक हैं |
प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
संध्या का समय था। शान्तिकुमार नक़्शों का एक पुलिन्दा लिये हुए सुखदा के पास आये और एक-एक नक़्शा खोलकर दिखाने लगे। यह उन मकानों के नक़्शे थे, जो बनवाये जायेंगे। एक नक्शा आठ आने महीने के मकान का था, दूसरा एक रुपये के किराये का और तीसरा दो रुपये का। आठ आने वालों में एक कमरा था, एक रसोई, एक बरामदा, सामने एक बैठक और छोटा-सा सहन। एक रुपये वाले में भीतर दो कमरे थे और दो रुपये वालों में तीन कमरे।
कमरों में खिड़कियाँ थीं, फ़र्श और दो फ़ीट ऊँचाई तक दीवारें पक्की। ठाठ खपरैल का था।
दो रुपये वाले में शौचगृह भी थे। बाकी दस-दस घरों में एक शौचगृह बनाया गया था।
सुखदा ने पूछा–‘आपने लागत का तख़मीना भी किया है?’
‘और क्या यों ही नक्शे बनवा लिए हैं! आठ आने वाले घरों की लागत दो सौ होगी, एक रुपये वालों की तीन सौ और दो रुपये वालों की चार सौ। चार आने का सूद पड़ता है।’
‘पहले कितने मकानों का प्रोग्राम है?’
‘कम-से-कम तीन हज़ार। दक्खिन तरफ़ लगभग इतने ही मकानों की ज़रूरत होगी। मैंने हिसाब लगा लिया है। कुछ लोग तो जमीन मिलने पर रुपये लगाएँगे, मगर कम-से-कम दस लाख की ज़रूरत होगी।’
‘मारा डाला! दस लाख! एक तरफ़ के लिए।’
‘अगर पाँच लाख के हिस्सेदाम मिल जायँ, तो बाकी रुपये जनता ख़ुद लगा देगी, मज़दूरी में बड़ी किफायत होगी। राज, बेलदार, बढ़ई, लोहार आधी मजूरी पर काम करने को तैयार हैं।’ ठेले वाले, गाड़ी वाले, यहाँ तक कि एक्के और ताँगे वाले भी बेगार काम करने पर राजी हैं।
‘देखिए, शायद चल जाय। दो-तीन लाख शायद दादाजी लगा दें, अम्माँ के पास भी अभी कुछ-न-कुछ होगी ही; बाकी रुपये की फ़िक्र करनी है। सबसे बड़ी ज़मीन की मुश्किल है।’
‘मुश्किल क्या है? दस बँगले गिरा दिये जायँ; तो ज़मीन ही ज़मीन निकल आयेगी।’
‘बँगलों का गिरना आप आसान समझते हैं?’
|