लोगों की राय

उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास)

कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

Like this Hindi book 3 पाठकों को प्रिय

31 पाठक हैं

प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


इधर सलीम के जीवन में एक बड़ा परिवर्तन हो गया। हँसोड़ तो उतना ही था; पर उतना शौक़ीनी, उतना रसिक न था। शायरी से भी अब उतना प्रेम न था। विवाह से उसे जो पुरानी अरुचि थी, वह अब बिलकुल जाती रही थी। यह परिवर्तन एकाएक कैसे हो गया हम नहीं जानते; लेकिन इधर वह कई बार सकीना के घर गया था और दोनों में गुप्त रूप से पत्र–व्यवहार भी हो रहा था। अमर के उदासीन हो जाने पर भी सकीना उसके अतीत प्रेम को कितनी एकाग्रता से हृदय में पाले हुए थी, इस अनुराग ने सलीम को परास्त कर दिया था। इस ज्योति से अब वह अपने जीवन को आलोकित करने के लिए विकल हो रहा था। अपने मामा से सकीना का उस अपार प्रेम का वृत्तान्त सुन–सुनकर वह बहुधा रो दिया करता। उसका कवि–हृदय जो भ्रमर की भाँति नये-नये पुष्पों के रस लिया करता था, अब संयमित अनुराग से परिपूर्ण होकर उसके जीवन में एक विशाल साधना की सृष्टि कर रहा था।

नैना का विवाह भी हो गया था। लाला धनीराम नगर के सबसे धनी आदमी थे। उनके जेठे पुत्र लाल मनीराम बड़े होनहार नौजवान थे। समरकान्त को तो आशा न थी कि यहाँ संबंध हो सकेगा; क्योंकि धनीराम मन्दिर वाली घटना के दिन से ही इस परिवार को हेय समझने लगे थे; पर समरकान्त की थैलियों ने अन्त में विजय पायी। बड़ी-बड़ी तैयारियाँ हुईं; लेकिन अमरकान्त न आया, और न समरकान्त ने उसे बुलाया। धनीराम ने कहला दिया था कि अमरकान्त विवाह में सम्मिलित हुआ तो बारात द्वार से लौट आयेगी। यह बात अमरकान्त के कानों तक पहुँच गयी थी। नैना न प्रसन्न थी, न दुःखी थी। वह न कुछ कह सकती थी, न बोल सकती थी। पिता की इच्छा के सामने वह क्या कहती? मनीराम के विषय में तरह-तरह की बातें सुनती थी–शराबी है–व्याभिचारी है, मूर्ख है, घमण्डी है; लेकिन पिता की इच्छा के सामने सिर झुकाना उसका कर्त्तव्य था। अगर समरकान्त उसे किसी देवता की बलिदान की बलिवेदी पर चढ़ा देते, तब भी वह मुँह न खोलती। केवल विदाई के समय वह रोई; पर उस समय भी उसे यह ध्यान रहा कि पिताजी को दुःख न हो। समरकान्त की आँखों में धन ही सबसे मूल्यवान वस्तु थी। नैना को जीवन का क्या अनुभव था? ऐसे महत्त्व के विषय में पिता का निश्चय ही उसके लिए मान्य था। उसका चित्त संशक था; पर उसने जो कुछ अपना कर्त्तव्य समझ रखा था, उसका पालन करते हुए उसके प्राण भी चले जायँ तो उसे दुःख न होगा।

इधर सुखदा और शान्तिकुमार का सहयोग दिन-दिन घनिष्ठ होता जाता था। धन का अभाव तो था नहीं, हरेक मुहल्ले में सेवाश्रम की शाखाएँ ख़ुल रही थीं और मादक वस्तुओं का बहिष्कार भी ज़ोरों से हो रहा था। सुखदा के जीवन में अब एक कठोर तप का संचार होता जाता था। वह अब प्रातःकाल और संध्या व्यायाम करती। भोजन में स्वाद से अधिक पोषकता का विचार रखती। संयम और निग्रह ही अब उसकी जीवनचर्या के प्रधान अंग थे। उपन्यासों की अपेक्षा अब उसे इतिहास और दार्शनिक विषयों में अधिक आनन्द आता था, और उसकी बोलने की शक्ति तो इतनी बढ़ गयी थी कि सुनने वालों को आश्चर्य होता था। देश और समाज की दशा देखकर सच्ची वेदना होती थी और यही वाणी में प्रभाव का मुख्य रहस्य है। इस सुधार के प्रोग्राम में एक बात और आ गयी थी–वह थी गरीबों के लिए मकानों की समस्या। अब यह अनुभव हो रहा था कि जब तक जनता के लिए मकानों की समस्या हल न होगी, सुधार का कोई प्रस्ताव सफल न होगा; मगर यह काम चन्दे का नहीं, इसे तो म्युनिसिपैलिटी ही हाथ में ले सकती थी। पर यह संस्था इतना बड़ा काम हाथ में लेते हुए भी घबराती थी। हाफ़िज हलीम प्रधान थे, लाला धनीराम उपप्रधान; ऐसे दकियानूसी महानुभावों के मस्तिष्क में इस समस्या की आवश्यकता और महत्त्व को जमा देना कठिन था। दो-चार ऐसे सज्जन तो निकल आये थे, जो जमीन मिल जाने पर दो-चार लाख रुपये लगाने को तैयार थे। उनमें लाला समरकान्त भी थे। अगर चार आने सैकड़े का सूद भी निकलता आये, तो वह सन्तुष्ट थे; मगर प्रश्न था ज़मीन कहाँ से आवे? सुखदा का कहना था कि जब मिलों के लिए स्कूलों और कालेजों के लिए ज़मीन का प्रबन्ध हो सकता है, तो इस काम के लिए क्यों न म्युनिसिपैलिटी मुफ़्त ज़मीन दे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book