उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
रेणुका खिन्न होकर बोली–‘अमर को धन की परवाह अगर है, तो औरों से भी कम। दौलत कोई दीपक तो है ही नहीं, जिससे प्रकाश फैलता रहे। जिन्हें उसकी ज़रूरत नहीं, उनके गले क्यों लगाई जाय? रुपये का भार कुछ कम नहीं होता। मैं ख़ुद नहीं सँभाल सकती। किसी शुभ कार्य में लग जाय, वह कहीं अच्छा। लाला समरकान्त तो मन्दिर और शिवाले की राय देते हैं; पर मेरा जी उधर नहीं जाता। मन्दिर तो यों ही इतने हो रहे हैं कि पूजा करने वाले नहीं मिलते। शिक्षादान महादान है और भी उन लोगों में, जिनका समाज ने हमेशा बहिष्कार किया हो। मैं कई दिन से सोच रही हूँ, और आपसे मिलने वाली थी। अभी मैं दो-चार महीने और दुविधा में पड़ी रहती; पर आपके आ जाने से मेरी दुविधाएँ मिट गयीं। धन देने वालों की कमीं नहीं है, लेनेवालों की कमी है। आदमी यही चाहता है कि धन सुपात्रों को दे, जो दाता की इच्छानुसार ख़र्च करें; यह नहीं कि मुफ़्त का धन पाकर उड़ाना शुरू कर दे। दिखाने को दाता की इच्छानुसार थोड़ा–बहुत ख़र्च कर दिया, बाक़ी किसी-न-किसी बहाने से घर में रख लिया।’
यह कहते हुए उसने मुस्कुराकर शान्तिकुमार से पूछा– आप तो धोखा न देंगे?’
शान्तिकुमार को यह प्रश्न, हँसकर पूछे जाने पर भी, बुरा मालूम हुआ–मेरी नीयत क्या होगी, यह मैं खुद नहीं जानता। आपको मुझ पर इतना विश्वास कर लेने का कोई कारण भी नहीं है।’
सुखदा ने बात सँभाली–‘यह बात नहीं है डॉक्टर साहब। अम्माँ ने तो हँसी की थी।’
‘विष मधु के साथ भी अपना असर करता है।’
‘यह तो बुरा मानने की बात न थी?’
‘मैं बुरा नहीं मानता। अभी दस-पाँच वर्ष मेरी परीक्षा होने दीजिए। अभी मैं इतने बड़े विश्वास के योग्य नहीं हुआ।’
रेणुका ने परास्त होकर कहा–‘अच्छा साहब मैं अपना प्रश्न वापस लेती हूँ। आप कल मेरे घर आइएगा। मैं मोटर भेज दूँगी। ट्रस्ट बनाना पहला काम है। मुझे अब कुछ नहीं पूछना है! आपके ऊपर मुझे पूरा विश्वास है।’
डॉक्टर साहब ने धन्यवाद देते हुए कहा–‘मैं आपके विश्वास को बनाये रखने की चेष्टा करूँगा।’
रेणुका बोलीं–मैं चाहती हूँ, जल्द ही इस काम को कर डालूँ। फिर नैना का विवाह आ पड़ेगा, तो महीनों फुरसत न मिलेगी।’
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