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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


शान्तिकुमार ने विवाद से बचने की चेष्टा करके कहा– ‘यह तो झगड़े का विषय है देवीजी, और तय नहीं हो सकता। मुझे आपसे एक विषय में सलाह लेनी है। आपकी माताजी हैं, यह और भी शुभ है। मैं सोच रहा हूँ, क्यों न नौकरी से इस्तीफ़ा देकर सेवाश्रम का काम करूँ?’

सुखदा ने इस भाव से कहा, मानो यह प्रश्न करने की बात ही नहीं–‘अगर आप सोचते हैं, आप बिना किसी के सामने हाथ फैलाये अपना निर्वाह कर सकते हैं, तो जरूर इस्तीफ़ा दे दीजिए, यों तो काम करने वाले का भार संस्था पर होता है; लेकिन इससे भी अच्छी बात यह है कि उसकी सेवा में स्वार्थ का लेश भी न हो।’

शान्तिकुमार ने जिस तर्क से अपना चित्त शान्त किया था, वह यहाँ फिर जवाब दे गया। फिर उसी उधेड़बुन में पड़ गये।

सहसा रेणुका ने कहा–‘आपके आश्रम में कोई कोष भी है।’

आश्रम में अब तक कोई कोष न था। चन्दा इतना न मिलता था कि बचत हो सकती। शान्तिकुमार ने इस अभाव को मानो अपने ऊपर लांछन समझकर कहा– जी नहीं, अभी तक तो कोष नहीं बन सका, पर मैं युनिवर्सिटी से छुट्टी पा जाऊँ, तो इसके लिए उद्योग करूँ।’

रेणुका ने पूछा–‘कितने रुपये हों, तो आपका आश्रम चलने लगे?’

शान्तिकुमार ने आशा की स्फूर्ति का अनुभव करके कहा–‘आश्रम तो एक युनिवर्सिटी भी बन सकता है; लेकिन मुझे तीन-चार लाख रुपये मिल जायँ, तो मैं उतना ही काम कर सकता हूँ, जितना युनिवर्सिटी में बीस लाख में भी नहीं हो सकता।’

रेणुका ने मुस्कराकर कहा–‘अगर आप कोई ट्रस्ट बना सकें, तो मैं आपकी कुछ सहायता कर सकती हूँ। बात यह है कि जिस सम्पत्ति को अब तक संचती आती थी, उसका अब कोई भोगने वाला नहीं है। अमर का हाल आप देख ही चुके। सुखदा भी उसी रास्ते पर जा रही है। तो फिर मैं भी अपने लिए कोई रास्ता निकालना चाहती हूँ। मुझे आप गुज़ारे के लिए सौ रुपये महीने ट्रस्ट से दिला दीजिएगा। मेरे जानवरों के खिलाने-पिलाने का भार ट्रस्ट पर होगा।’

शान्तिकुमार ने डरते-डरते कहा–‘मैं तो आपकी आज्ञा तभी स्वीकार कर सकता हूँ, जब अमर और सुखदा मुझे सहर्ष अनुमति दें। फिर बच्चे का हक़ भी तो है?

सुखदा ने कहा–‘मेरी तरफ़ से इस्तीफा है। और बच्चे के दादा का धन क्या थोड़ा है? औरों की मैं नहीं कह सकती।’

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