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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


‘आइडियल (आदर्श) को हमेशा सामने रखने की ज़रूरत है।’

‘लेकिन तालीम का सीग़ा तो जब्र करने का सींग़ा नहीं है। फिर जब आप अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा सेवाश्रम में ख़र्च करते हैं, तो कोई वजह नहीं कि आप मुलाज़िमत छोड़कर संन्यासी बन जायँ।’

यह दलील डॉक्टर के मन में बैठ गई। उन्हें अपने मन को समझाने का एक साधन मिल गया, बेशक, शिक्षा–विभाग का शाशन से संबंध नहीं। गवर्नमेंट जितनी ही अच्छी होगी, उसका शिक्षाकार्य और भी विस्तृत होगा। तब इस सेवाश्रम की भी क्या ज़रूरत होगी। संगठित रूप से सेवा धर्म का पालन करते हुए, शिक्षा का प्रचार करना किसी दशा में भी आपत्ति की बात नहीं हो सकती। महीनों से जो प्रश्न डॉक्टर साहब को बेचैन कर रहा था, आज हल हो गया।

सलीम को बिदा करके वह लाला समरकान्त के घर चले। सुखदा को अमर का पत्र दिखाकर सुर्खरू बनना चाहते थे। जो समस्या वह अभी हल कर चुके थे, उसके विषय में फिर कुछ सन्देह उत्पन्न हो रहे थे। उन सन्देहों को शान्त करना भी आवश्यक था। समरकान्त तो कुछ ख़ुलकर उनसे न मिले। सुखदा ने उनकी ख़बर पाते ही बुला लिया। रेणुका बाई भी आयी हुई थीं।

शान्तिकुमार ने जाते ही जाते अमरकान्त का पत्र निकालकर सुखदा के सामने रख दिया और बोले– ‘सलीम ने चार दिनों से अपनी जेब में डाल रखा था और मैं घबरा रहा था कि बात क्या है।’

सुखदा ने पत्र को उड़ती हुई आँखों से देखकर कहा– ‘तो मैं इसे लेकर क्या करूँ?’

शान्तिकुमार ने विस्मित होकर कहा–‘ज़रा एक बार इसे पढ़ तो जाइए। इससे आपके मन की बहुत–सी शंकाए मिट जायेंगी।’

सुखदा ने रूखेपन के साथ जवाब दिया–‘मेरे मन में किसी की तरफ़ से कोई शंका नहीं है। इस पत्र में भी जो कुछ लिखा होगा, वह मैं जानती हूँ। मेरी ख़ूब तारीफें की गयी होंगी। मुझे तारीफ़ की ज़रूरत नहीं। जैसे किसी को क्रोध आ जाता है, उसी तरह मुझे वह आवेश आ गया। यह भी क्रोध के सिवा और कुछ न था। क्रोध की कोई तारीफ़ नहीं करता।’

‘यह आपने कैसे समझ लिया कि इसमें आपकी तारीफ़ ही है?’

‘हो सकता है, खेद भी प्रकट किया हो!’

‘तो फिर आप और चाहती क्या हैं?’

‘अगर आप इतना भी नहीं समझ सकते, तो मेरा कहना व्यर्थ है।’

रेणुका बाई अब तक चुप बैठी थीं। सुखदा का संकोच देखकर बोलीं–‘जब वह अब तक घर लौटकर नहीं आये, तो कैसे मालूम हो कि उनके मन के भाव बदल गये हैं। अगर सुखदा उनकी स्त्री न होती, तब भी तो उसकी तारीफ़ करते। नतीजा क्या हुआ, जब स्त्री-पुरुष सुख से रहें, तभी तो मालूम हो कि उनमें प्रेम है। प्रेम को छोड़िए। प्रेम तो बिरले ही दिलों में होता है। धर्म का निबाह तो करना ही चाहिए। पति हज़ार कोस पर बैठा हुआ स्त्री की बड़ाई करे। स्त्री हज़ार कोस पर बैठी हुई मियाँ की तारीफ़ करे। इससे क्या होता है।’

सुखदा खीझकर बोली–‘आप तो अम्माँ बेबात की बात करती हैं। जीवन तब सुखी हो सकता है, जब मन का आदमी मिले। उन्हें मुझसे अच्छी एक वस्तु मिल गयी। वह उसके वियोग में भी मगन हैं। मुझे उनसे अच्छा अभी कोई नहीं मिला, और न इस जीवन में मिलेगा, यह मेरा दुर्भाग्य है। इसमें किसी का दोष नहीं।’

रेणुका ने डॉक्टर साहब की ओर देखकर कहा–‘सुना आपने बाबूजी? यह मुझे इसी तरह रोज़ जलाया करती है। कितनी बार कहा कि चल हम दोनों उसे वहाँ से पकड़ लायें। देखें, कैसे नहीं आता। जवानी की उम्र में थोड़ी–बहुत नादानी सभी करते हैं; मगर यह न खुद मेरे साथ चलती है, न मुझे अकेल जाने देती है। भैया एक दिन भी ऐसा नहीं जाता कि बग़ैर रोये मुँह में अन्न जाता हो। तुम क्यों नहीं चले जाते भैया? तुम उसके गुरु हो, तुम्हारा अदब करता है। तुम्हारा कहना वह नहीं टाल सकता।’

सुखदा ने मुस्कुराकर कहा–‘हाँ, यह तो तुम्हारे कहने से आज ही चले जायेंगे। यह तो और ख़ुश होते होंगे कि शिष्यों में एक तो ऐसा निकला, जो इनके आदर्श का पालन कर रहा है। विवाह को यह लोग समाज का कलंक समझते हैं। इनके पंथ में पहले तो किसी को विवाह करना ही न चाहिए, और अगर दिल न माने, तो किसी को रख लेना चाहिए। इनके दूसरे शिष्या मियाँ सलीम हैं। हमारे बाबू साहब तो न–जाने किस दबाव में पड़कर विवाह कर बैठे? अब उसका प्रायश्चित कर रहे हैं।’

शान्तिकुमार ने झेंपते हुए कहा–‘देवीजी, आप मुझ पर मिथ्या आरोप लगा रही हैं। अपने विषय में मैंने अवश्य यही निश्चय किया है कि एकान्त जीवन व्यतीत करूँगा; इसलिए कि आदि से ही सेवा का आदर्श मेरे सामने था।

सुखदा ने पूछा–‘क्या विवाहित जीवन में सेवा–धर्म का पालन असम्भव है? या स्त्री इतनी स्वार्थान्ध होती है कि आपके कामों में बाधा डाले बिना रह ही नहीं सकती? गृहस्थ जितनी सेवा कर सकता है, उतनी एकान्त जीवी कभी नहीं कर सकता; क्योंकि वह जीवन के कष्टों का अनुभव नहीं कर सकता।’

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