उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘भाई साहब, मैं जिन्दा हूँ और आपका मिशन यथाशक्ति पूरा कर रहा हूँ। वहाँ के समाचार कुछ नैना के पत्रों से मुझे मिलते ही रहते थे; किन्तु आपका पत्र पढ़कर तो मैं चकित रह गया। इन थोड़े से दिनों में तो वहाँ क्रान्ति-सी हो गयी! मैं तो सारी जाग्रति का श्रेय आपको देता हूँ। और सुखदा तो अब मेरे लिए पूज्य हो गयी है। मैंने उसे समझने में कितनी भयंकर भूल की, याद करके मैं विकल हो जाता हूँ। मैंने उसे क्या समझा था, और वह क्या निकली। मैं अपने सारे दर्शन और विवेक और उत्सर्ग से वह कुछ न कर सका, जो उसने एक क्षण में कर दिखाया। कभी गर्व से सिर उठा लेता हूँ, कभी लज्जा से सिर झुका लेता हूँ। हम अपने निकटतम प्राणियों के विषय में कितने अज्ञ हैं। इसका अनुभव करके मैं रोज उठता हूँ। कितना महान् अज्ञान है। मैं क्या स्वप्न में भी सोच सकता था कि विलासिनी सुखदा का जीवन इतना त्यागमय हो जायेगा? मुझे इस अज्ञान ने कहीं का न रखा। जी में आता है, आकर सुखदा से अपने अपराध क्षमा कराऊँ; पर कौन–सा मुँह लेकर आऊँ? मेरे सामने अन्धकार है, अभेद्य अन्धकार है। कुछ नहीं सूझता। मेरा सारा आत्मविश्वास नष्ट हो गया है। ऐसा ज्ञात होता है, कोई अदेख शक्ति मुझे खिला-खिलाकर कुचल डालना चाहती है। मैं मछली की भाँति काँटे में फँसा हुआ हूँ। काटा मेरे कण्ठ में चुभ गया है। कोई हाथ मुझे खींच लेता है, खिंचा चला जाता हूँ। फिर डोर ढीली हो जाती है और मैं भागता हूँ। अब जान पड़ा कि मनुष्य विधि के हाथ का खिलौना है। इसलिए अब उसकी निर्दयी क्रीड़ा की शिकायत नहीं करूँगा। कहाँ हूँ, कुछ नहीं जानता; किधर जा रहा हूँ, कुछ नहीं जानता। अब जीवन में कोई भविष्य नहीं है। भविष्य पर विश्वास नहीं रहा। इरादे झूठे साबित हुए, कल्पनाएँ मिथ्या निकलीं। मैं आपसे सत्य कहता हूँ, सुखदा मुझे नचा रही है। उस मायाविनी के हाथों में मैं कठपुतली बना हुआ हूँ। पहले एक रूप दिखाकर उसने मुझे भयभीत कर दिया और अब दूसरा रूप दिखाकर मुझे परास्त कर रही है। कौन उसका वास्तविक रूप है, नहीं जानता। सकीना का जो रूप देखा था, वह भी उसका सच्चा रूप था, नहीं कह सकता। मैं अपने ही विषय में कुछ नहीं जानता। आज क्या हूँ, कल क्या हो जाऊँगा, कुछ नहीं जानता। अतीत दुःखदायी है, भविष्य स्वप्न है। मेरे लिए केवल वर्तमान है।
‘आपने अपने विषय में मुझसे जो सलाह पूछी है, उसका मैं क्या जवाब दूँ। आप मुझसे कहीं बुद्धिमान हैं। मेरा विचार तो है कि सेवा–व्रतधारियों को जाति से गुजारा–केवल गुज़ारा–लेने का अधिकार है। यदि वह स्वार्थ को मिटा सकें, तो और भी अच्छा।’
शान्तिकुमार ने असन्तोष के भाव से पत्र को मेज़ पर रख दिया। जिस विषय पर उन्होंने विशेष रूप से राय पूछी थी, केवल दो शब्दों में उड़ा दिया।
सहसा उन्होंने सलीम से पूछा–‘तुम्हारे पास भी कोई ख़त आया है?’
‘जी हाँ, इसके साथ ही आया था।’
‘कुछ मेरे बारे में लिखा था?’
‘कोई ख़ास बात तो न थी, बस यही कि मुल्क को सच्चे मिशनरियों की ज़रूरत है और खुदा जाने क्या-क्या? मैंने ख़त को आख़ीर तक पढ़ा भी नहीं। इस क़िस्म की बातों को मैं पागलपन समझता हूँ। मिशनरी होने का मतलब तो मैं यही समझता हूँ कि हमारी ज़िन्दगी ख़ैरात पर बसर हो।’
डॉक्टर साहब ‘ने गम्भीर स्वर में कहा–‘ज़िन्दगी का ख़ैरात पर बसर होना इससे कहीं अच्छा है कि वह जब्र पर बसर हो। गवर्नमेंट तो कोई ज़रूरी चीज़ नहीं। पढ़े-लिखे आदमियों ने ग़रीबों को दबाये रखने के लिए एक संगठन बना लिया है। उसी का नाम गवर्नमेंट हैं। ग़रीब और अमीर का फ़र्क मिटा दो और गवर्नमेन्ट का ख़ातमा हो जाता है।’
‘आप तो ख़याली बातें कर रहे हैं। गवर्नमेंट की ज़रूरत तो उस वक़्त न रहेगी, जब दुनिया में फ़रिश्ते आबाद होंगे।’
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