उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सुखदा ने उपहास के स्वर में कहा–‘इस समय तो आपने सचमुच एक आविष्कार कर डाला। मैं तो हमेशा यह सुनती आती हूँ कि स्त्री मूर्ख है, ताड़ना के योग्य है, पुरुषों के गले का बन्धन है और जाने क्या-क्या? बस, इधर से भी मरदों की जीत उधर से भी मरदों की जीत। अगर पुरुष नीचा है, तो उसे स्त्रियों का शासन अप्रिय लगे? परीक्षा करके देखा तो होता, आप तो दूर से ही डर गये!’
शान्तिकुमार ने कुझ झेंपते हुए कहा–‘अब अगर चाहूँ भी, तो बूढ़ों को कौन पूछता है?’
‘अच्छा। आप बूढ़े भी हो गये। तो किसी अपनी–जैसी बुढ़िया से कर लीजिए न?’
‘जब तुम जैसी विचारशील और अमर–जैसे गम्भीर स्त्री-पुरुष में न बनी, तो फिर मुझे किसी तरह की परीक्षा करने की ज़रूरत नहीं रही। अमर जैसा विनय और त्याग मुझमें नहीं है, और तुम जैसी उदार और...’
सुखदा ने बात काटी–‘मैं उदार नहीं हूँ, न विचारशील हूँ। पुरुष के प्रति अपना धर्म समझती हूँ। आप मुझसे बड़े हैं और मुझसे कहीं बुद्धिमान हैं। मैं आपको अपने बड़े भाई के तुल्य समझती हूँ। आज आपका स्नेह और सौजन्य देखकर मेरे चित्त को बड़ी शान्ति मिली। मैं आपसे बेशर्म होकर पूछती हूँ, ऐसे पुरुष को, जो स्त्री के प्रति अपना धर्म न समझे, क्या अधिकार है कि वह स्त्री से व्रतधारिणी रहने की आशा रखे? आप सत्यवादी हैं। मैं आपसे पूछती हूँ, यदि मैं उस व्यवहार का बदला उसी व्यवहार से दूँ, तो आप मुझे क्षम्य समझेंगे?’
शान्तिकुमार ने निश्शंक भाव से कहा–‘नहीं।’
‘उन्हें आपने क्षम्य समझ लिया?’
‘नहीं!’
‘और यह समझकर भी आपने उनसे कुछ नहीं कहा? कभी एक पत्र भी नहीं लिखा? मैं पूछती हूँ, इस उदासीनता का क्या कारण है? यही न कि इस अवसर पर एक नारी का अपमान हुआ है। यदि वही कृत्य मुझसे हुआ होता, तब भी आप इतने ही उदासीन रह सकते? बोलिए।’
शान्तिकुमार रो पड़े। नारी–हृदय की संचित व्यथा आज इस भीषण विद्रोह के रूप में प्रकट होकर कितनी करुण हो गयी थी।
सुखदा उसी आवेश में बोली–‘कहते हैं, आदमी की पहचान उसकी संगत से होती है। जिसकी संगत आप और मुहम्मद सलीम और स्वामी आत्मानन्द जैसे महानुभावों की हो, वह अपने धर्म को इतना भूल जाय, यह बात मेरी समझ में नहीं आती। मैं यह नहीं कहती कि मैं निर्दोष हूँ। कोई स्त्री यह दावा नहीं कर सकती और न कोई पुरुष ही यह दावा कर सकता है। मैंने सकीना से मुलाकात की है। सम्भव है उसमें वह गुण हो, जो मुझमें नहीं है। वह ज़्यादा मधुर है उसके स्वभाव में कोमलता है। हो सकता है, वह प्रेम भी अधिक कर सकती हो; लेकिन यदि इसी तरह सभी पुरुष और स्त्रियाँ तुलना करके बैठ जायँ, तो संसार की क्या गति होगी? फिर तो यहाँ रक्त और आँसुओं की नदियों के सिवा और कुछ न दिखाई देगा।’
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