उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
सुखदा भी हँसी को न रोक सकी। शान्तिकुमार ने शीशे में मुँह देखा, तो वह भी ज़ोर से हँसे। यह कलंक का टीका उन्हें इस समय यश के तिलक से भी कहीं उल्लासमय जान पड़ा।
सहसा सुखदा ने पूछा–‘आपने शादी क्यों नहीं की डॉक्टर साहब?’
शान्तिकुमार सेवा और व्रत का जो आधार बनाकर अपने जीवन का निर्माण कर रहे थे वह इस शय्या–सेवन के दिनों में कुछ नीचे खिसकता हुआ जान पड़ रहा था। जिसे उन्होंने जीवन का मूल सत्य समझा था, वह अब उतना दृढ़ न रह गया था। इस आपातकाल में ऐसे कितने ही अवसर आये, जब उन्हें अपना जीवन भार–सा मालूम हुआ। तीमारदारों की कमी न थी। आठों पहर दो-चार आदमी घेरे ही रहते थे। नगर के बड़े-बड़े नेताओ का आना-जाना भी बराबर होता रहता था, पर शान्तिकुमार को ऐसा जान पड़ता था कि वह दूसरों की दया या शिष्टता पर बोझ हो रहे हैं। इन सेवाओं में वह माधुर्य वह कोमलता न थी, जिससे आत्मा की तृप्ति होती। भिक्षुक को क्या अधिकार है कि वह किसी के दान का निरादर करे। दान–स्वरूप उसे जो कुछ मिल जाय, वह सभी स्वीकार करना होगा। इन दिनों उन्हें कितनी ही बार अपनी माता की याद आती थी। वह स्नेह कितना दुर्लभ था। नैना जो एक क्षण के लिए उनका हाल पूछने आ जाती थी, इसमें उन्हें न जाने क्यों एक प्रकार की स्फूर्ति का अनुभव होता था। वह जब तक रहती थी उनकी व्यथा जाने कहाँ छिप जाती थी। उसके जाते ही फिर वही कराहना, वही बेचैनी! उनकी समझ में कदाचित यह नैना का सरल अनुराग ही था, जिसने उन्हें मौत के मुँह से निकाल लिया, लेकिन वह स्वर्ग की देवी! कुछ नहीं!
सुखदा का यह प्रश्न सुनकर मुस्कराते हुए बोले– ‘इसीलिए कि विवाह करके किसी को सुखी नहीं देखा।’
सुखदा ने समझा यह उस पर चोट है। बोली–‘दोष भी बराबर स्त्रियों का ही देखा होगा, क्यों?’
शान्तिकुमार ने जैसे अपना सिर पत्थर से बचाया– ‘यह तो मैंने नहीं कहा। शायद इसकी उलटी बात हो। शायद नहीं, बल्कि उलटी है।’
‘खैर, इतना तो आपने स्वीकार किया। धन्यवाद। इससे तो यही सिद्ध हुआ कि पुरुष चाहे तो विवाह करके सुखी हो सकता है।’
‘लेकिन पुरुष में थोड़ी-सी पशुता होती है जिसे वह इरादा करके भी हटा नहीं सकता। वही पशुता उसे पुरुष बनाती है। विकास के क्रम में वही स्त्री से पीछे है। जिस दिन वह पूर्ण विकास को पहुँचेगा, वह भी स्त्री हो जायेगा। वात्सल्य, स्नेह, कोमलता, दया, इन्ही आधारों पर यह सृष्टि थमी हुई है। और यह स्त्रियों के गुण हैं। अगर स्त्री इतना समझ ले, तो फिर दोनों का जीवन सुखी हो जाय। स्त्री पशु के साथ पशु हो जाती है, तभी दोनों सुखी होते हैं।’
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