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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


सुखदा ने जैसे आँसू पोंछतें हुए कहा– ‘आपने इस नगर में जितनी जाग्रति फैला दी, उस हिसाब से तो आपकी उम्र चौगुनी हो गयी। मुझे तो बैठे-बैठाये यश मिल गया।’

शान्तिकुमार के पीले मुख पर आत्मगौरव की आभा झलक पड़ी। सुखदा के मुँह से यह सनद पाकर मानो उनका जीवन सफल हो गया। बोले–‘यह आपकी उदारता है। आपने जो कुछ कर दिखाया और कर रही है, वह आप ही कर सकती हैं। अमरकान्त आयेंगे तो उन्हें मालूम होगा कि अब उनके लिए यहाँ स्थान नहीं है। यह साल भर में जो कुछ हो गया इसकी वह स्वप्न में भी कल्पना न कर सकते थे। यहाँ सेवाश्रम में लड़कों की संख्या बड़ी तेज़ी से बढ़ रही है। अगर यही हाल रहा, तो कोई दूसरी जगह लेनी पड़ेगी। अध्यापक कहाँ से आयेंगे, कह नहीं सकता। सभ्य समाज की यह उदासीनता देखकर मुझे तो कभी-कभी बड़ी चिन्ता होने लगती है। जिसे देखिए स्वार्थ में मगन हैं। जो जितना ही महान है उसका स्वार्थ भी उतना ही महान है। यूरोप की डेढ़ सौ साल तक उपासना करके हमें यही वरदान मिला है। लेकिन यह सब होने पर भी हमारा भविष्य उज्ज्वल है। मुझे इसमें सन्देह नहीं। भारत की आत्मा अभी जीवित है और मुझे विश्वास है कि वह समय आने में देर नहीं है, जब सेवा और त्याग के पुराने आदर्श पर लौट आयेंगे। तब धन हमारे जीवन का ध्येय न होगा। तब हमारा मूल्य धन के काँटे पर न तौला जायेगा।’

मुन्ने ने कुरसी पर चढ़कर मेज पर से दावात उठा ली थी और अपने मुँह में कालिमा पोत-पोतकर खुश हो रहा था। नैना ने दौड़कर उसके हाथ से दावात छीन ली और एक धौल जमा दिया। शान्तिकुमार ने उठने की असफल चेष्टा करके कहा–‘ क्यों मारती हो नैना, देखो तो कितना महान पुरुष है, जो अपने मुँह में कालिमा पोतकर भी प्रसन्न होता है, नहीं तो हम अपनी कालिमाओं को सात परदों के अन्दर छिपाते हैं!’

नैना ने बालक को उनकी गोद में देते हुए कहा–‘तो लीजिए, इस महान पुरुष को आप ही। इसके मारे चैन से बैठना मुश्किल है।’

शान्तिकुमार ने बालक को छाती से लगा लिया। उस गर्म और गुदगदे स्पर्श में उसकी आत्मा ने जिस परितृप्त और माधुर्य का अनुभव किया, वह उनके जीवन में बिलकुल नया था। अमरकान्त से उन्हें जितना स्नेह था, वह जैसे इस छोटे-से रूप में सिमटकर और ठोस और भारी हो गया था। अमर की याद करके उनकी आँखें सजल हो गयीं। अमर ने अपने को कितने अतुल आनन्द से वंचित रखा है, इसका अनुमान करके वह जैसे दब गये। आज उन्हें स्वयं अपने जीवन में एक अभाव का, एक रिक्तता का आभास हुआ। जिन कामनाओं का वह अपने विचार में सम्पूर्णतः दमन कर चुके थे, वह राख में छिपी हुई चिनगारियों की भाँति सजीव हो गयी।

मुन्ने के हाथों की स्याही शान्तिकुमार के मुख में पोतकर नीचे उतरने का आग्रह किया, मानो इसीलिए यह उनकी गोद में गया था। नैना ने हँसकर कहा–ज़रा अपना मुँह तो देखिए डॉक्टर साहब! इस महान पुरुष ने आपके साथ होली खेल डाली! बदमाश है।’

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