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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


नैना प्रायः एक बार रोज शान्तिकुमार को देख आती थी, हाँ सुखदा से कुछ कहती न थी। वह अब उठने–बैठने लगे थे, पर अभी इतने दुर्बल थे कि लाठी के सहारे बगैर एक पग भी न चल सकते थे। चोटें उन्होंने खायीं–छः महीने से शय्या–सेवन कर रहे थे–और यश सुखदा ने लूटा। वह दुःख उन्हें और भी घुलाये डालता था। यद्यपि उन्होंने अंतरंग मित्रों से भी अपनी मनोव्यथा नहीं कही, पर काँटा खटकता अवश्य था। अगर सुखदा स्त्री न होती, और वह भी प्रिय शिष्य और मित्र की, तो कदाचित वह शहर छोड़कर भाग जाते। सबसे बड़ा अनर्थ यह था कि इन छः महीनों में सुखदा दो-तीन बार से ज़्यादा उन्हें देखने न गयी थी। वह भी अमरकान्त के मित्र थे और इस नाते से सुखदा को उन पर विशेष श्रद्धा न थी।

नैना को सुखदा के साथ जाने में कोई आपत्ति न हुई। रेणुका बाई ने कुछ दिनों से मोटर रख लिया था, पर वह रहता था सुखदा की ही सवारी में। दोनों उस पर बैठकहर चलीं। मुन्ना भला क्यों अकेले रहने लगा? नैना ने उसे भी ले लिया।

सुखदा से कुछ दूर जाने के बाद कहा–‘यह अमीरों के चोंचले हैं। मैं चाहूँ तो दो-तीन आने में अपना निबाह कर सकती हूँ।’

नैना ने विनोद–भाव से कहा– ‘पहले करके दिखा दो, तो मुझे विश्वास आये। मैं तो नहीं कर सकती।’

‘जब तक इस घर में रहूँगी, मैं भी न कर सकूँगी। इसीलिए तो मैं अलग रहना चाहती हूँ।’

‘लेकिन साथ तो किसी को रखना ही पड़ेगा?’

‘मैं कोई ज़रूरत नहीं समझती। इसी शहर में हज़ारों औरतें अकेली रहती हैं। फिर मेरे लिए क्या मुश्किल है? मेरी रक्षा करने वाले बहुत हैं। मैं खुद अपनी रक्षा कर सकती हूँ। (मुस्कराकर) हाँ, खुद किसी पर मरने लगूँ, तो दूसरी बात है।’

शान्तिकुमार सिर से पाँव तक कम्बले लपेटे, अँगीठी जलाये, कुरसी पर बैठे एक स्वास्थ–सम्बन्धी पुस्तक पढ़ रहे थे। वह कैसे जल्द-से-जल्द भले–चंगे हो जायँ, आजकल उन्हें यही चिन्ता रहती थी। दोनों रमणियों के आने का समाचार पाते ही किताब रख दी और कम्बल उतारकर रख दिया। अँगीठी भी हटाना चाहते थे, पर इसका अवसर न मिला। दोनों ज्यों ही कमरे में आयीं, उन्हें प्रणाम करके कुरसियों पर बैठने का इशारा करते हुए बोले– ‘मुझे आप लोगों पर ईर्ष्या हो रही है। आप इस शीत में घूम–फिर रही हैं और मैं अँगीठी जलाये पड़ा हूँ। करूँ क्या, उठा ही नहीं जाता। ज़िन्दगी के छः महीने मानों कट गये, बल्कि आधी उम्र कहिए। मैं अच्छा होकर भी आधा ही रहूँगा। कितनी लज्जा आती है कि देवियाँ बाहर निकलकर काम करें और मैं कोठरी मे बन्द पड़ा रहूँ।’

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