उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
एक दिन सुखदा ने नैना से कहा– ‘बीबी अब तो इस घर में रहने को जी नहीं चाहता। लोग कहते होंगे, आप तो महल में रहती हैं, और हमें उपदेश करती हैं। महीनों दौड़ते हो गये, सब कुछ करके हार गयी, पर नशेवाजों पर कुछ भी असर न हुआ। हमारी बातों पर कोई कान ही नहीं देता। अधिकतर तो लोग अपनी मुसीबतों को भूल जाने ही के लिए नशा करते हैं! वह हमारी क्यों सुनने लगे? हमारा असर तभी होगा, जब हम भी उन्हीं की तरह रहें।’
कई दिनों से सर्दी चमक गयी थी, कुछ वर्षा हो गयी थी और पूस की ठण्डी हवा आर्द्ध होकर आकाश को कुहरे से आच्छन्न कर रही थी। कहीं-कहीं पाला भी पड़ गया था–मुन्ना बाहर जाकर खेलना चाहता था। वह अब लटपटाता हुआ चलने लगा था, पर नैना उसे ठण्डे के भय से रोके हुए थी। उसके सिर पर ऊनी कनटोप बाँधती हुई बोली– ‘यह तो ठीक है, पर उनकी तरह रहना हमारे लिए साध्य भी है, यह देखना है। मैं तो शायद एक ही महीने में मर जाऊँ।’
सुखदा ने जैसे मन-ही-मन निश्चय करके कहा–‘मैं तो सोच रही हूँ, किसी गली में छोटा-सा घर लेकर रहूँ। इसका कनटोप उतारकर छोड़ नहीं देती? बच्चों को गमलों में पौधे बनाने की ज़रूरत नहीं, जिन्हें लू का एक झोंका भी सुखा सकता है। इन्हें तो जंगल के वृक्ष बनाना चाहिए, जो धूप और वर्षा, ओले और पाले किसी की परवा नहीं करते।’
नैना ने मुस्कराकर कहा–‘शुरू से तो इस तरह रखा नहीं, अब बेचारे की साँसत करने चली हो। कहीं ठण्ड–वण्ड लग जाय, तो लेने के देने पड़ें।
‘अच्छा भई, जैसे चाहो रखो, मुझे क्या करना है।’
‘क्यों, इसे अपने साथ उस छोटे–से घर में न रखोगी?’
‘जिसका लड़का है, वह जैसे चाहे रखे। मैं कौन होती हूँ!’
‘अगर भैया के सामने तुम इस तरह रहती, तो तुम्हारे चरण धो-धोकर पीते!’
सुखदा ने अभिमान के स्वर में कहा–‘मैं तो जो तब थी, वही अब भी हूँ जब दादाजी से बिगड़कर उन्होंने अलग घर ले लिया था, तो क्या मैंने उनका साथ न दिया था? वह मुझे विलासिनी समझते थे, पर कभी विलास की लौड़ी नहीं रही! हाँ, मैं दादाजी को रुष्ट नहीं करना चाहती थी। यही बुराई मुझमें थी। मैं अब भी अलग रहूँगी, तो उनकी आज्ञा से। तुम देख लेना, मैं इस ढंग से यह प्रश्न उठाऊँगी कि वह बिलकुल आपत्ति न करेंगे। चलो, ज़रा डॉक्टर शान्तिकुमार को देख आवें। मुझे तो उधर जाने का अवकाश ही नहीं मिला।’
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