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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


संध्या समय इन धर्म–विजेताओं की अर्थियाँ निकलीं। सारा शहर फट पड़ा। जनाज़े पहले मन्दिर–द्वार पर गये। मन्दिर के दोनों द्वार खुले हुए थे। पुजारी और ब्रह्मचारी किसी का पता न था। सुखदा ने मन्दिर से तुलसी जल लाकर अर्थियों पर रखा और मरने वालों के मुख में चरणामृत डाला। इन्हीं द्वारों को ख़ुलवाने के लिए यह भीषण संग्राम हुआ। अब वह द्वार खुला हुआ है, वीरों का स्वागत करने के लिए हाथ फैलाए हुए है; पर ये रूठने वाले अब द्वार की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखते। कैसे विचित्र विजेता हैं! जिस वस्तु के लिए प्राण दिये, उसी से उतना विराग।

ज़रा देर के बाद आर्थियाँ नदी की ओर चलीं। वही हिन्दू–समाज जो एक घण्टा पहले इन अछूतों से घृणा करता था, इस समय उन अर्थियों पर फूलों की वर्षा कर रहा था। बलिदान में कितनी शक्ति है।

और सुखदा? वह तो विजय की देवी थी। पग-पग पर उसके नाम की जय-जयकार होती थी। कहीं फूलों की वर्षा होती थी, कहीं मेवे की, कहीं रुपयों की। घड़ी भर पहले वह नगर में नगण्य थी। इस समय वह नगर की रानी थी। इतना यश बिरले ही पाते हैं। उसे इस समय वास्तव में दोनों तरफ़ के ऊँचे मकान कुछ नीचे और सड़क के दोनों ओर खड़े होने वाले मनुष्य कुछ छोटे मालूम होते थे, पर इतनी नम्रता, इतनी विनय उसमें कभी न थी। मानो इस यश और ऐश्वर्य के भार से उसका सिर झुका जाता हो।

इधर गंगा के तट पर चिताएँ जल रही थीं, उधर मन्दिर इस उत्सव के आनन्द में दीपकों के प्रकाश से जगमगा रहा था, मानो वीरों की आत्माएँ चमक रही हों!

दूसरे दिन मन्दिर में कितना समारोह हुआ, शहर में कितनी हलचल मची, कितने उत्सव मनाये गये, इसकी चरचा करने की ज़रूरत नहीं। सारे दिन मन्दिर में भक्तों का ताँता लगा रहा। ब्रह्मचारी आज फिर विराजमान हो गये थे और जितनी दक्षिणा उन्हें आज मिली, उतनी शायद उम्रभर में न मिली होगी। इससे उनके मन का विद्रोह बहुत कुछ शान्त हो गया;किन्तु ऊँची जाति वाले सज्जन अब भी मन्दिर में देह बचाकर आते और नाक सिकोड़े हुए कतराकर निकल जाते थे। सुखदा मन्दिर के द्वार पर खड़ी लोगों का स्वागत कर रही थी। स्त्रियों से गले मिलती थी, बालकों को प्यार करती थी और पुरुषों को प्रणाम करती थी।

कल की सुखदा और आज की सुखदा में कितना अन्तर हो गया है। भोग-विलास पर प्राण देने वाली रमणी आज सेवा और दया कि मूर्ति बनी हुई है। इन दुखियों की भक्ति, श्रद्धा और उत्साह देख-देखकर उसका हृदय पुलकित हो रहा है। किसी की देह पर साबूत कपड़े नहीं हैं, आँखों से सूझता नहीं, दुर्बलता के मारे सीधे पाँव नहीं पड़ते पर भक्ति में मस्त दौड़े चले आ रहे हैं। मानो संसार का राज्य मिल गया हो, जैसे संसार से दुःख दरिद्रता का लोप हो गया हो। ऐसी सरल, निष्कपट भक्ति के प्रभाव में सुखदा भी बही जा रही थी। प्रायःमनस्त्री, कर्मशील महत्वकांक्षी प्राणियों की यही प्रकृति है। भोग करने वाले ही वीर होते हैं।

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