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कर्मभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :658
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8511
आईएसबीएन :978-1-61301-084

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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…


कायरता की भाँति वीरता भी संक्रामक होती है। एक क्षण में उड़ते हुए पत्तों की तरह भागने वाले आदमियों की एक-एक दीवार-सी खड़ी हो गयी। अब डण्डे पड़ें या गोलियों की वर्षा हो, उन्हें भय नहीं।

बन्दूकों से धाएँ! की आवाजें निकलीं। एक गोली सुखदा के पास से सन् से निकल गयी। तीन-चार आदमी गिर पड़े, पर दीवार ज्यों-की-त्यों अचल खड़ी थी।

फिर बन्दूकें छूटीं। चार-पाँच आदमी फिर गिरे; लेकिन दीवार न हिली।

सुखदा उसे थामे हुए थी। एक ज्योति सारे घर को प्रकाश से भर देती है। बलवान हृदय उसी दीपक की भाँति समूह में साहस भर देता है।

भीषण दृश्य था। लोग अपने प्यारों को आँखों के सामने तड़पते देखते थे, पर किसी की आँखों में आँसू की बूँद न थी। उनमें इतना साहस कहाँ से आ गया था? फ़ौजें क्या हमेशा मैदानों में डटी ही रहती हैं? वही सेना जो एक दिन प्राणों की बाजी खेलती है, दूसरे दिन बन्दूक की पहली आवाज़ पर मैदान से भाग खड़ी होती है, पर यह किराये के सिपाहियों का हाल है; जिनमें सत्य और न्याय का बल नहीं होता। जो केवल पेट के लिए या लूट के लिए लड़ते हैं। इस समूह में सत्य और धर्म का बल आ गया था। हरेक स्त्री और पुरुष चाहे वह कितना ही मूर्ख क्यों न हो, समझने लगा था कि हम अपने धर्म और हक के लिए लड़ रहे हैं, और धर्म के लिए प्राण देना अछूत-नीति में भी उतनी ही गौरव की बात है, जितनी द्विज-नीति में।

मगर यह क्या? पुलिस के जवान क्यों संगीने उतार रहे हैं? बन्दूकें क्यों कन्धों पर रख लीं? अरे! सब-के-सब तो पीछे की तरफ़ घूम गये। उनकी चार-चार की कतारें बन रही हैं। मार्च का हुक्म मिलता है। सब-के-सब मन्दिर की तरफ़ लौटे जा रहे हैं। एक कांस्टेबल भी नहीं रहा। केवल लाला समरकान्त पुलिस सुपरिण्टेण्डेंट से कुछ बातें कर रहें है और जन-समूह उसी भाँति सुखदा के पीछे निश्चल खड़ा है। एक क्षण में सुपरिण्टेण्डेंट भी चला जाता है। फिर लाला समरकान्त सुखदा के समीप आकर ऊँचे स्वर में बोलते हैं –

‘मन्दिर खुल गया है। जिसका जी चाहे दर्शन करने जा सकता है। किसी के लिए रोक-टोक नहीं है।’

जनसमूह में हलचल पड़ जाती है। लोग उन्मत्त हो-होकर सुखदा के पैरों पर गिरते हैं; और तब मन्दिर की तरफ़ दौड़ते हैं।

मगर दस मिनट के बाद ही समूह उसी स्थान पर लौट आता है और लोग अपने प्यारों की लाशों से गले मिलकर रोने लगते हैं। सेवाश्रम के छात्र डोलियाँ ले-लेकर आ जाते हैं और आहतों को उठा ले जाते हैं। वीरगति पाने वालों के क्रिया-कर्म का आयोजन होने लगता है। बजाज़ों की दुकानों से कपड़े के थान आ जाते हैं, कहीं से बाँस, कहीं से रस्सियाँ, कहीं से घी, कहीं से लकड़ी। विजेताओं ने धर्म ही पर विजय नहीं पायी है, हृदयों पर भी विजय पाई है। सारा नगर उनका सम्मान करने के लिए उतावला हो उठा है।

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