उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
‘मुझे तो रास्ते में ही पता लगा। गलियों में छिपती हुई आयी हूँ।’
‘लोग कितने कायर हैं! घरों के किवाड़ तक बन्द कर लिए।’
‘लालाजी जाकर पुलिस वालों को मना क्यों नहीं करते?’
‘इन्हीं के आदेश से तो गोली चली है। मना कैसे करेंगे?’
‘अच्छा! दादा ही ने गोली चलवायी है?’
‘हाँ, इन्हीं ने जाकर कप्तान से कहा है। और अब घर में छिपे बैठे हैं। मैं अछूतों का मन्दिर जाना उचित नहीं समझती, लेकिन गोलियाँ चलती देखकर मेरा ख़ून खौल रहा है। जिस धर्म की रक्षा गोलियों से हो, उस धर्म में सत्य का लोप समझो। देखो, देखो, उस आदमी बेचारे को गोली लग गयी! छाती से ख़ून बह रहा है!’
यह कहती हुई वह समरकान्त के सामने जाकर बोली– ‘क्यों लालाजी, रक्त की नदी बह जाय, पर मन्दिर का द्वार न खुलेगा!’
समरकान्त ने अविचलित भाव से उत्तर दिया–‘क्या बकती है बहू इन डोम–चमारों को मन्दिर में घुसने दें? तू तो अमर से भी दो–दो हाथ आगे बढ़ी जाती है। जिसके हाथ का पानी नहीं पी सकते, उसे मन्दिर में कैसे जाने दें?’
सुखदा ने और वाद-विवाद न किया। वह मनस्वी महिला थी! यही तेजस्विता, जो अभिमान बनकर उसे विलासिन बनाये हुए थी, जो उसे छोटों से मिलने न देती थी, जो उसे किसी से दबने न देती थी, उत्सर्ग के रूप में उबल पड़ी। वह उन्माद की दशा में घर से निकली और पुलिस वालों से सामने खड़ी होकर, भागने वालों को ललकारती हुई बोली–‘भाइयो! क्यों भाग रहे हो? यह भागने का समय नहीं, छाती खोलकर सामने आने का समय है। दिखा दो कि तुम धर्म के नाम पर किस तरह प्राणों को होम करते हो। धर्मवीर ही ईश्वर को पाते हैं। भागने वालों की कभी विजय नहीं होती।’
भागने वालों के पाँव सँभल गये। एक महिला को गोलियों के सामने खड़ी देखकर कायरता भी लज्जित हो गयी। एक बुढ़िया ने पास आकर कहा–‘बेटी, ऐसा न हो, तुम्हें गोली लग जाय!’
सुखदा ने निश्चय भाव से कहा–‘जहाँ इतने आदमी मर गये, वहाँ मेरे मर जाने से कोई हानि न होगी। भाइयो, बहनो भागो मत! तुम्हारे प्राणों का बलिदान पाकर ही ठाकुरजी तुमसे प्रसन्न होंगे!’
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