उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
अस्पताल में पहुँची तो देखा, हज़ारों आदमियों की भीड़ लगी हुई है और युनिवर्सिटी के लड़के इधर-उधर दौड़ रहे हैं। सलीम भी नज़र आया। वह उसे देखकर पीछे लौटना चाहती थी कि ब्रजनाथ मिल गया–‘अरे नैना देवी! तुम कहाँ? डॉक्टर साहब को रात भर होश नहीं रहा। सलीम और मैं उनके पास बैठे रहे। इस वक़्त जाकर आँखें खोली हैं।’
इतने परिचित आदमियों के सामने नैना कैसे ठहरती? वह तुरन्त लौट पड़ी पर यहाँ आना निष्फल न हुआ। डॉक्टर साहब को होश आ गया है।
वह मार्ग में ही थी कि उसने सैकड़ों आदमियों को दौड़ते हुए आते देखा। वह एक गली में छिप गयी। शायद फ़ौजदारी हो गयी। अब वह घर कैसे पहुँचेगी? संयोग से आत्मानन्दजी मिल गये। नैना को पहचानकर बोले–‘यहाँ तो गोलियाँ चल रही हैं। पुलिस कप्तान ने आकर फै़र करा दिया।’
नैना के चेहरे का रंग उड़ गया। जैसे नसों में रक्त का प्रवाह बन्द हो गया हो। बोली–‘क्या आप उधर ही से आ रहे हैं?’
‘हाँ, मरते-मरते बचा। गली-गली निकल आया। हम लोग केवल खड़े थे। बस, कप्तान ने फैर करने का हुक्म दे दिया। तुम कहाँ गयी थीं?’
‘मैं गंगा-स्नान करके लौटी जा रही थी। लोगों को भागते देखकर इधर चली आयी। कैसे घर पहुँचूँगी?’
‘इस समय तो उधर जाने में जोख़िम है।’
फिर एक क्षण के बाद कदाचित् अपनी कायरता पर लज्जित होकर कहा–‘किन्तु गोलियों में कोई डर नहीं है। चलो, मैं तुम्हें पहुँचा दूँ। कोई पूछे, तो कह देना, मैं लाला समरकान्त की कन्या हूँ।
नैना ने मन में कहा–यह महाशय संन्यासी बनते हैं, फिर भी इतने डरपोक। पहले तो गरीबों को भड़काया और जब मार पडी, तो सबसे आगे भाग खड़े हुए। मौका न था, नहीं उन्हें ऐसा फटकारती कि याद करते। उनके साथ कई गलियों का चक्कर लगाती कोई दस बजे घर पहुँची। आत्मानन्द फिर उसी रास्ते से लौट गये। नैना ने उन्हें धन्यवाद भी न दिया। उनके प्रति अब उसे लेशमात्र भी श्रद्धा न थी।
वह अन्दर गयी, तो देखा-सुखदा सदर द्वार पर खड़ी है और सामने सड़क से लोग भागते चले जा रहे हैं।
सुखदा ने पूछा–‘तुम कहाँ चली गयी थी बीबी? पुलिस ने फै़र कर दिया! बेचारे आदमी भागे जा रहे हैं!’
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