उपन्यास >> कर्मभूमि (उपन्यास) कर्मभूमि (उपन्यास)प्रेमचन्द
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प्रेमचन्द्र का आधुनिक उपन्यास…
दूसरे दिन संध्या समय उसे ख़बर मिली कि आज नौजवान सभा में अछूतों के लिए अलग कथा होगी, तो उसका मन वहाँ जाने के लिए लालायित हो उठा। वह मन्दिर में सुखदा के साथ तो गयी; पर उसका जी उचाट हो रहा था। जब सुखदा झपकियाँ लेने लगी–आज यह कृत्य शीघ्र ही होने लगा तो वह चुपके से बाहर आयी और एक ताँगे पर बैठकर नौजवान सभा चली। वह दूर से जमाव देखकर लौट आना चाहती थी, जिसमें सुखदा को उसके आने की ख़बर न हो। उसे दूर से गैस की रोशनी दिखाई दी। ज़रा और आगे बढ़ी, तो ब्रजनाथ की स्वर लहरियाँ कानों में आयीं। तांगा उस स्थान पर पहुँचा, तो शान्तिकुमार मंच पर आ गये थे। आदमियों का एक समुद्र उमड़ा हुआ था और डॉक्टर साहब की प्रतिभा उस समुद्र के ऊपर किसी विशाल व्यापक आत्मा की भाँति छाई हुई थी। नैना कुछ देर तो ताँगे पर मन्त्रमुग्ध सी बैठी सुनती रही, फिर उतरकर पिछली कतार में सबके पीछे खड़ी हो गयी।
एक बुढ़िया बोली–‘कब तक खड़ी रहोगी बिटिया भीतर जाकर बैठ जाओ।’
नैना ने कहा–‘मैं बड़े आराम से हूँ। सुनाई तो दे रहा है।’
बुढ़िया आगे थी। उसने नैना का हाथ पकड़कर अपनी जगह पर खींच लिया और आप उसकी जगह पर पीछे हट आयी। नैना ने अब शान्तिकुमार को सामने देखा। उनके मुख पर देवोपम तेज छाया हुआ था। जान पड़ता था, इस समय वह किसी दिव्य जगत् में है, मानो वहाँ की वायु सुधामयी हो गयी है। जिन दरिद्र चेहरों पर वह फटकार बरसते देखा करती थी, उन पर आज कितना गर्व था, मानो वे किसी नवीन सम्पत्ति के स्वामी हो गये हैं। इतनी नम्रता, इतनी भद्रता, इन लोगों में उसने कभी न देखी थी।
शान्तिकुमार कह रहे थे–‘ क्या तुम ईश्वर के घर से गुलामी करने का बीड़ा लेकर आये हो? तुम तन-मन से दूसरों की सेवा करते हो, पर तुम गुलाम हो। तुम्हारा समाज में कोई स्थान नहीं। तुम समाज की बुनियाद हो। तुम्हारे ही ऊपर समाज खड़ा है, पर तुम अछूत हो। तुम मन्दिरों में नहीं जा सकते। ऐसी अनीति इस अभागे देश के सिवा और कहाँ हो सकती है? क्या तुम सदैव इसी भाँति पतित और दलित बने रहना चाहते हो?’
एक आवाज़ आयी–‘हमारा क्या बस है?’
शान्तिकुमार ने उत्तेजना–पूर्ण स्वर में कहा–‘तुम्हारा बस उस समय तक कुछ नहीं है, जब तक समझते हो, तुम्हारा बस नहीं है। मन्दिर किसी एक आदमी या समुदाय की चीज़ नहीं है। वह हिन्दू–मात्र की चीज़ है। यदि तुम्हें कोई रोकता है, तो यह उसकी जबरदस्ती है। मत टलो उस मन्दिर के द्वार से चाहे तुम्हारे ऊपर गोलियों की वर्षा ही क्यों न हो! तुम ज़रा-ज़रा सी बात के पीछे अपना सर्वस्व गँवा देते हो, जान दे देते हो, यह तो धर्म की बात है, और धर्म हमें जान से भी प्यारा होता है। धर्म की रक्षा सदा प्राणों से हुई है और प्राणों से होगी। ‘कल की मारधाड़ ने सभी को उत्तेजित कर दिया था। दिनभर उसी विषय की चरचा होती रही। बारूद तैयार होती रही। उसमें चिनगारी की कसर थी। ये शब्द चिनगारी का काम कर गये। संघ–शक्ति ने हिम्मत भी बढ़ा दी। लोगों ने पगड़ियाँ सँभाली, आसन बदले और एक-दूसरे की ओर देखा, मानो पूछ रहे हों– ‘चलते हो, या अभी कुछ सोचना बाक़ी है?’ और फिर शान्त हो गये। साहस ने चूहे की भाँति बिल से सिर निकालकर फिर अन्दर खींच लिया।
नैना के पास वाली बुढ़िया ने कहा–‘अपना मन्दिर लिए रहें, हमें क्या करना है?’
नैना ने जैसे गिरती हुई दीवार को सँभाला–‘मन्दिर किसी एक आदमी का नहीं है।’
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